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उर्वशी Short Novel

Sep 23, 2016

urvashiसालों बाद मैं एक बार फिर सम्बलपुर स्टेशन पर था। आधी रात का वक्त था। इक्का दुक्का लोग अपने परिजनों को सी-ऑफ करने के बाद लौट रहे थे। अब इस शहर में मेरा कोई ठिकाना नहीं था। कभी यहां के हर घर के दरवाजे मेरे लिए खुले होते थे। पर एक-एक कर समय ने काफी कुछ बदल दिया था। फरवरी 2014 में हुए एक नौका हादसे ने लायंस क्लब से जुड़े अनगिनत साथियों को हमेशा के लिए छीन लिया था। एक साल बाद एक घनिष्ट मित्र का शव घर से मीलों दूर पेड़ पर टंगा बरामद हुआ मिला। लोग कहते हैं कि उसने खुदकुशी कर ली। दो अन्य मित्रों की असमय मृत्यु हो चुकी थी। कुछ लोग जिन्दगी में आगे बढ़ गए थे। इन्हीं में एक चेहरा था उर्वशी का। न जाने वह किस हाल में होगी। यही सोचता हुआ मैं मेन गेट की ओर बढ़ ही रहा था कि अपना नाम सुनकर चौंक गया।
यह मिश्रा जी थे। ईस्टकोस्ट रेलवे सम्बलपुर के जनसम्पर्क अधिकारी। सहोदर जितने ही प्रिय। आधी रात को लोगों को सी-ऑफ करना या रिसीव करना उनकी फितरत में शामिल था। दस साल पहले भी और संभवत: आज भी। बाहें अपने आप फैल गईं और हम एक दूसरे से लिपट गए। वो मुझे खींचते हुए रिटायरिंग रूम की ओर चले। वह धारा प्रवाह बोले जा रहे थे। एक-एक कर उन सबके बारे में बताते जा रहे थे जो हमारे कॉमन फ्रेंड्स थे। चलते-चलते ही उन्होंने एक स्टाफ को कॉफी और सैंडविच का आर्डर दे दिया।
हाथ मुंह धोकर फस्र्ट क्लास रिटायरिंग रूम में हम पालथी मारकर सोफे पर बैठ गए। रात बीतती गई और किस्से लंबे होते चले गए। फिर वे एकाएक ही चुप हो गए। सिर झुकाए थोड़ी देर तक मानो अपने आप से ही बातें करते रहे। फिर सिर उठाया और मेरी आंखों में झांकने लगे। उनकी आंखों की झिझक ने मेरी उत्सुकता बढ़ा दी।
‘उर्वशी की कोई खबर है?’
मैंने इंकार में सिर हिलाया।
‘उसका शव पुलिस ने बरामद किया था। न जाने कब से अपने घर के भीतर मृत पड़ी थी। लोग तरह-तरह की बातें करते हैं। सुनकर अच्छा नहीं लगता। उसे कोई ठीक से जानता भी तो नहीं था, सिवा आपके।’
ऐसा ही होता है। जिन्हें हम अच्छे से जानते हैं उनके बारे में बातें करने के लिए हमारे पास अकसर ज्यादा कुछ नहीं होता। जिन्हें हम नहीं जानते, उनके बारे में अनर्गल बातें करते हमारी जुबान नहीं थकती। वह अपरिचित यदि कोई अविवाहित महिला हो तो पूरा मैगी घोंट लिया जाता है। दो मिनट में मसालेदार, चटपटा रेसिपी हाजिर हो जाता है।
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उर्वशी, हाँ! उसका यही नाम ठीक रहेगा। वह जिला हाई स्कूल के हिन्दी दिवस कार्यक्रम में मिली थी। एक हिन्दी समाचार पत्र का प्रमुख होने के नाते विशेष व्याख्यान का आमंत्रण मिला था। थोड़ी गोल-मोल बातें, हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आकाशवाणी, विविध भारती, रेडियो सीलोन और बॉलीवुड का उल्लेख करने के बाद जब मैंने पोडियम छोड़ा तो वह भी तालियां बजा रही थी। और लोग बैठे हुए थे पर वह अपने ही स्थान पर खड़ी थी। इसलिए नजर पड़ी। गोरा चिट्टा प्यारा सा चेहरा। औसत से ऊंचा कद। आंखें बड़े से चश्मे के पीछे छिपी थीं। नजरें हटीं और मैं कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्राचार्य से बातचीत में मशगूल हो गया।
हमारे यहां अकसर ऐसा ही होता है। हम लोग सिर्फ अपना-अपना भाषण पढऩे के लिए कार्यक्रम में जाते हैं। जब दूसरा वक्ता बोल रहा होता है तो हम आपस में बातें करते हैं। हम चुप रहते हैं तो पीछे से कोई आकर हमारे कानों में खुसुर-पुसुर करने लगता है। यहां भी वही सबकुछ होता रहा। बीच-बीच में मैं उसकी तरफ कनखियों से देखता। वह एकटक मुझे ही देख रही थी।
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कुछ दिन बाद दोबारा जिला स्कूल जाने का मौका मिला। आयोजन था खेल दिवस का। कार्यक्रम में मंत्री जी आने वाले थे पर ऐन वक्त पर उन्हें भुवनेश्वर से बुलावा आ गया। लिहाजा आनन-फानन में नए अतिथि तय किए गए और हमारे भाग्य में भी छींका टूट गया। हमें विशेष अतिथि बना लिया गया था।
स्कूल में प्रवेश करते ही उससे आंखें चार हो गईं। गुलाबी सलवार और दुपट्टा, सफेद कुर्ता और स्याह रंग का ब्लेजर पहने वह स्कूल भवन से बाहर आ रही थी। नजर पड़ते ही वह ठिठकी और फिर करीब आ गई। गुलाबी दुपट्टे की आभा उसके चेहरे को और गुलाबी कर रही थी।
हलो! कहकर उसने अपना हाथ आगे कर दिया। हाथ मिलाते हुए मैंने उसकी आंखों में झांका। उसकी आंखें भूरी नीली थीं। कामकाजी हाथ खुरदुरे और सख्त थे।
बात हिन्दी दिवस समारोह से ही आगे चली। उसने मेरी बेबाकी की प्रशंसा की और फिर बोलती चली गई –
‘मेरा हिन्दी टीचर बनना भी एक संयोग है। मैं हिन्दी भाषी हूँ इसलिए यह विषय मुझे दिया गया है। जब हीराकुद बांध बना, तभी मेरा पिता यहां आ गए थे। यह हमारी दूसरी पीढ़ी है। मैं स्पोट्र्स मैन बनना चाहती थी पर अब पीटीआई का प्रभार लेकर भी खुश हूं। आप तो शायद बंगाली हैं, फिर हिन्दी इतनी अच्छी कैसे?’
मुझे ठिठोली सूझी। मैंने कहा, ‘मैं करेला और नीम चढ़ा हूँ। मातृभाषा बंगाली है और शिक्षा इंग्लिश मीडियम में हुई। हिन्दी का पहला अखबार 10वीं कक्षा में पढ़ा। वह भी पड़ोसी से उधार मांग कर।’
‘अच्छा!’ उसकी आंखों में आश्चर्य था।
मैंने बात आगे बढ़ाई। ‘मेरा जन्म भिलाई में हुआ जिसे मिनी भारत कहा जाता है। हमारी मातृभाषा घर में और अंग्रेजी स्कूल में कैद रही। बाहर हम सब हिन्दी बोलते थे। किताबी हिन्दी। इसलिए हिन्दी पर दखल कुछ ज्यादा ही अच्छा है। धर्मयुग और देशबंधु जैसे अखबारों से हिन्दी को बेहतर बनाया। यह मेरा सौभाग्य रहा कि उन दिनों देशबंधु में सत्येन्द्र गुमाश्ता, राजनारायण मिश्रा, सुनील कुमार, रुचिर गर्ग जैसे पत्रकार लिखा करते थे। रम्मू श्रीवास्तव, रमेश नैय्यर जैसे पत्रकारों ने सोच को परिष्कृत किया तो बलदेव भाई शर्मा जैसे संपादकों ने हिन्दी सुधारने में मदद की। अभिव्यक्ति को नए पंख मिले और कलम सरपट दौडऩे लगी।’
‘मुझे भी पढऩे का शौक है।’ उसने अभी हाथ छोड़ा नहीं था। ‘पर मैं किसी किताब को पूरा नहीं कर पाती। आधी किताब पढऩे के बाद उसे बंद कर देती हूँ। आगे की कहानी को मैं अपने हिसाब से, अपने मन में पूरा करती हूँ।’
हम साथ-साथ खेल मैदान पहुंचे। वहां उसकी ऊर्जा देखते ही बनती थी। मंच व्यवस्था से लेकर ग्राउण्ड पर खींची गई चूने की लाइन तक का सारा काम मानो उसकी ही देखरेख में हुआ था। कभी वह माइक टेस्ट करती, कभी इंतजार कर रहे खिलाडिय़ों के बीच चली जातीं। कार्यक्रम खत्म होने तक मैंने उसे कहीं स्थिर होते नहीं देखा।
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ऐतिहासिक गंगाधर मेहेर कालेज में छात्रों ने हड़ताल कर दिया था। बुढ़ाराजा फ्लाईओवर से उतरने की गुंजाइश नहीं थी। मैंने अपना टूव्हीलर वहीं स्टैंड पर लगाया और कैमरा लेकर भीड़ की तरफ बढ़ा। छात्र समुदाय गोल घेरा बनाकर खड़ा था। चारों तरफ की ट्रैफिक रुक गई थी। तभी एक तरफ से स्कूटर पर सवार उर्वशी वहां पहुंच गई। ठेठ संबलपुरी में उसने लड़कों से रास्ता छोडऩे के लिए कहा।
‘मुझे घर जाना है। मेरी तबियत ठीक नहीं है। घर पहुंचने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है।’ वह जोर-जोर से बोल रही थी। छात्र उसे पहचानते थे। उन्होंने रास्ता छोड़ दिया। उसने स्कूटर को दोबारा स्टार्ट किया और आगे बढ़ी। तभी उसकी नजर मुझपर पड़ी।
‘मुझे घर तक छोड़ दोगे? प्लीज!’
उसकी आवाज में ऐसा कुछ था कि मैं इंकार नहीं कर सका। एक बार मुड़कर फ्लाईओवर पर लावारिस जैसी खड़ी अपनी स्कूटर को देखा और फिर उसकी तरफ बढ़ गया।
पास जाते ही शराब का एक भभका मेरे नथुनों से टकराया। मैंने उसके चेहरे की ओर देखा। उसकी आंखें मुंदी जा रही थीं। बिना देर किए मैंने उसकी स्कूटर संभाली और उसे रास्ता बताने के लिए कहते हुए गाड़ी आगे बढ़ा दी।
वह एक दोमंजिली इमारत के ग्राउंड फ्लोर में रहती थी। छोटा सा साफ सुथरा फ्लैट। किचन, ड्राइंग कम बेडरूम और टायलेट कम वॉश रूम। वह मेरी बांह पर लगभग झूल गई थी। इसलिए ताला खोलकर भीतर आना पड़ा था। इस बात की भी चिंता खाए जा रही थी कि आधा शहर जानता है। न जाने किस-किस ने देखा होगा। ज्यादा देर भीतर रहा तो न जाने कैसी-कैसी बातें उडऩे लगेंगी। पर कत्र्तव्य बोध ने साथ नहीं छोड़ा। मैं उसे भीतर ले जाकर बेड पर लिटा दिया।
‘अब मैं सोऊंगी। आप जाओ। लोग बातें करेंगे।’ उसने कहा और आंखें मूंद लीं।
लगभग बेहोशी की हालत में भी उसका मेरी चिंता करना, मेरे रेपुटेशन की परवाह करना मुझे अच्छा लगा। मैं वहां से चला आया। अब तक रास्ते पर टायर जला दिए गए थे। चारों तरफ काला धुआं दम घोंट रहा था। लाल-पीली लपटों के आसपास नारे लगाते छात्र दिखाई दे रहे थे। मैंने कुछ तस्वीरें लीं और रास्ता बदलकर दफ्तर की ओर चल पड़ा।
सम्बलपुर सहित पूरे पश्चिम ओडीशा में ऐसा ही होता है। यहां चक्का जाम करने के लिए सड़कों पर पुराने टायर जला दिए जाते हैं। टायर से उठते काले धुएं ने ही सासन मोड़ के पास सड़क हादसे में एक पूरे परिवार की जान ले ली थी। काले धुएं की आड़ में खड़ा भीमकाय ट्रक बोलेरो चालक देख नहीं पाया था। इस हादसे में भावी दामाद का तिलक कर लौट रहे एक ही परिवार के लगभग सभी पुरुष सदस्यों की मय ड्राइवर जान चली गई थी।
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इन छोटी छोटी मुलाकातों के बीच हम एक दूसरे के काफी करीब आ गए थे। उर्वशी को लेकर शहर में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित थीं। इन मुलाकातों ने साफ कर दिया कि उनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं था। अकेली खूबसूरत लड़कियों के विषय में ऐसी अफवाहों का उडऩा देश में आम बात है। लोग मनगढ़ंत किस्सों को इस तरह सुनाते हैं कि हर तीसरा व्यक्ति उसे दोहराने लगता है। और फिर समय के साथ लोग उसे सच मान लेते हैं।
वह अकसर अपने अकेलेपन की चर्चा करती। ‘मुझे खाना बनाने का, खिलाने का शौक है – पर कोई तो है नहीं। किसे खिलाऊँ। इसलिए अपने लिए भी अकसर नहीं बनाती। दो घूंट पीकर सो जाती हूं।’ कभी कहती – ‘मुझे घर सजाने का शौक है पर कोई आता ही नहीं। किसे दिखाऊँ। यह नौकरी भी ज्यादा दिन नहीं रहेगी। मेरी काफी शिकायतें हैं। फिर मेरा क्या होगा।’
फिर मैंने एक दिन उससे पूछ ही लिया। ‘उर्वशी! तुम शादी क्यों नहीं कर लेती?’
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इसका जवाब मुझे करीब दो महीने बाद मिला। वह काफी गंभीर थी। मिलते ही पूछा, ‘डैम तक चलोगे?’
मेरे हां कहते ही उसने अपनी स्कूटर सड़क किनारे पार्क कर दी और मेरे स्कूटर पर आ बैठी। हम गांधी मिनार के करीब से होकर डाइक पर आगे बढ़ गए।
1956-57 में बने हीराकुद बांध की लंबाई लगभग 25.8 किलोमीटर है। इसमें बीच का 4.8 किलोमीटर हिस्सा आरसीसी का है जिसमें फ्लड गेट्स हैं। इस आरसीसी के हिस्से को लामडुंगरी और चांदिली डुंगुरी से जोड़ते हैं मिट्टी और चट्टानों से बने डाइक। डाइक की इन्हीं चट्टानों पर वह पांव पसारकर बैठ गई और मुझे भी बैठने का इशारा किया। पैर फैलाने के लिए थोड़ी जगह बीच में छोड़कर मैं ठीक उसके सामने बैठ गया।
वह काफी देर तक सिर झुकाए अपने नाखूनों को कुरेदती उन्हीं में खोई रही। डाइक पर हवा कुछ ज्यादा ही तेज होती है। हवा ने उसके चेहरे से बालों को पीछे धकेल दिया था। उसके उदास चेहरे पर केवल परछाइयां थीं। उसने धीरे-धीरे सिर उठाया और सीधे मेरी आंखों में झांकने लगी। कुछ देर एकटक इसी तरह देखने के बाद उसने निगाहों को हटा लिया और दूर कहीं देखने लगी।
‘तुम वाकई जानना चाहते हो, मैंने शादी क्यों नहीं की?’
हवा मेरी तरफ से उसकी ओर बह रही थी। आवाज मुश्किल से सुनाई दी। मैंने कान खड़े कर लिये। आशंकाओं से मन कांप उठा और दिल धाड़-धाड़ बजने लगा। उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वह कहने लगी। उसकी आवाज कहीं दूर से आती प्रतीत हो रही थी।
‘मेरी तरफ स्वाभाविक रूप से लड़के आकर्षित होते रहे हैं। स्कूल में तो मैं उनसे दूरी बनाए रखती थी किन्तु कालेज में ऐसा संभव नहीं था। मैं हर दूसरी गतिविधि का हिस्सा होती थी। लिहाजा लड़के और लड़कियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम भी करना पड़ता था। मैं भी लड़कों की तरफ आकर्षित होती। स्पष्टवादिता ने मुझे हमेशा प्रभावित किया। मेरा मानना है, मन में अच्छा हो या बुरा, यदि आप साफ-साफ कह देते हैं तो आपकी विश्वसनीयता बढ़ती है।’
लगातार चट्टानों के बीच कुछ ढूंढती उसकी उंगलियों को सहसा वह मिल गया जिसकी उन्हें तलाश थी। वह पत्थर का एक छोटा गोल सा टुकड़ा था। नदी में काफी समय तक बहने के बाद ही पत्थरों में ऐसी गोलाई आ पाती है। उसने पत्थर को हाथों में तौला, घुमा फिराकर उसका निरीक्षण किया और फिर किसी खिलाड़ी जैसे अंदाज में उसके हाथ उठे, पूरा शरीर धनुष की भांति खिंचा और फिर उसने पत्थर को मेरे सिर के ऊपर से पानी की तरफ उछाल दिया। मैंने सिर घुमाया और पत्थर को दूर जाकर पानी में गोता लगाते हुए देखा।
‘उन्हीं लड़कों में से एक था भुवेश। सांवला रंग, ऊंचा पूरा कद, चौड़ा सीना और बलशाली कंधे उसे बेहद आकर्षक बनाते थे। वह बेहद भरोसेमंद और साहसी था। हम छात्र-छात्राओं की जायज-नाजायज बातों को वह सपाट लहजे में प्राचार्य या प्रबंधन के आगे रख देता था। वह आगे बढ़कर जिम्मेदारी लेता और हर कार्य को करने का प्रयत्न करता। उसके पास किसी काम को नहीं करने का कभी कोई बहाना नहीं होता।’
उसे एक पत्थर और मिल गया था। उसने उसे भी तौला, परखा और फिर मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने पत्थर को हाथ में लेकर उसीसे खेलना शुरू कर दिया। उसे फेंकने का कोई उपक्रम नहीं किया। वह थोड़ी देर मानो पत्थर को फेंके जाने का इंतजार करती रही फिर उसकी उंगलियां और पत्थर ढूंढने लगी।
‘एक दिन हम यहीं डाइक पर आए थे। ऐसे ही बैठे थे। बातों-बातों में हम बहक गए। बातें करते-करते कभी वह मेरी उंगलियों को सहलाने लगता तो कभी चेहरे से बालों को हटाने लगता। मुझे भी अच्छा लग रहा था। तभी उसने मुझे अपनी गोद में खींच लिया। उसकी सांसें मेरे चेहरे से टकरा रही थीं। पर उसके हाथों ने जैसे ही मेरे शरीर को छुआ मेरी सांस रुक सी गई, गर्दन से लेकर पूरा शरीर धनुष की तरह अकडऩे लगा। वह घबरा गया। उसने मुझे जोर-जोर से हिलाना शुरू किया पर मेरे मुंह से सिर्फ घरघराने की आवाज निकल रही थी। वह मुझे छोड़कर पानी लेने के लिए भागा। जब तक वह लौटता मैं ठीक हो चुकी थी।’
वह काफी देर तक चुप रही। आंसुओं की बूंदें उसके गालों पर रुक रुक कर ढलकती रही। एक गहरी सांस लेकर उसने फिर बोलना शुरू किया।
‘इसके बाद भी जब-जब उसने मुझे छूने या मेरे करीब आने की कोशिश की, शरीर ने मेरा साथ नहीं दिया। जैसे ही वह मुझे छूता मुझे मिरगी जैसे दौरे पड़ते। हम कटक और भुवनेश्वर तक गए। एक बार कोलकाता भी गए पर डाक्टरों ने इसे कोई बीमारी मानने से इंकार कर दिया। वे हर बार एक ही बात कहते कि बचपन की किसी घटना ने मेरे मस्तिष्क पर गहरा आघात किया है। एक दिन यह अपने आप चला जाएगा। इस लक्षण से मुझे खुद ही लडऩा होगा।’
वह एक बार फिर चुप हो गई। उसके चेहरे पर अकेले लड़ते-लड़ते थक जाने वाले भाव थे। वहां सिर्फ अवसाद था।
‘ग्रेजुएशन के बाद भुवेश बरहमपुर चला गया। इस बीच कुछ और भी दोस्त बने। पता नहीं कैसे मेरी अक्षमता की चर्चा पूरे कालेज और फिर शहर में फैल गई। लोग मुझे नौटंकी, नाटकबाज, पागल और भी न जाने किन-किन नामों से पुकारना शुरू कर दिया। पहले मैं लोगों को समझाने की कोशिश करती पर अंत में मैने हार मान ली। लोगों से दूरी बना ली और पढ़ाई में डूब गई। समय पर शिक्षा पूरी हुई और नौकरी भी मिल गई। घर वालों ने शादी के लिए दबाव बनाना शुरू किया पर रोग की बदनामी मेरे आगे आगे चल रही थी। फिर घर वालों ने भी मुंह फेर लिया और मैं अकेली रह गई।’
‘अब बस मैं हूं। दिल में अरमान हैं। पर क्षमता नहीं है। लोगों से मिलती हूं। दोस्ती करती हूं। कोई ज्यादा करीब आने की कोशिश करता है तो उसे परे धकेल देती हूं। फिर निकल पड़ती हूं एक नए मृगमरीचिका की तलाश में।’
अपने जीवन में मैंने खुद को कभी इतना असहाय नहीं महसूस किया था। हम कितनी जल्दी किसी के बारे में अपनी राय बना लेते हैं। जरूरी नहीं कि हर जख्म से लहू बहता हुआ दिखाई दे। अपंगता और असहायता दोनों सहोदर हैं। एक पूरी दुनिया को दिखाई देता है पर दूसरे का पूरा भार स्वयं ही उठाना पड़ता है। यह भार वह न जाने कब से अकेले उठाए आगे बढ़ रही थी। और हम थे कि उसपर पत्थर बरसाए जा रहे थे।
भारी मन लेकर हम वहां से लौटे। मैं दफ्तर चला आया और थोड़ी ही देर में खुद को भुलाकर एक्सीडेंट, मर्डर और नेतागिरी की खबरों में उलझ गया। पर जब-जब फुर्सत मिलती इस अजीब सी बीमारी की वजह जानने की कोशिश भी करता। डायल अप कनेक्शन वाले कम्प्यूटर पर रात-रात भर ब्राउजिंग करता। साइको सोमैटिक डिजीजेज पर हजारों पन्ने पढ़ गया। कई बातें पता चलीं पर किसी ऐसे डाक्टर का सुराग नहीं मिला जो उर्वशी को उसकी तकलीफों से छुटकारा दिला सके। और फिर एक दिन मैंने सम्बलपुर छोड़ दिया।

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