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कहानी – डाक्टर बाबू

Sep 7, 2016

doctor-thrashedपूरा चेहरा लहूलुहान था। उलझे हुए बाल माथे पर लटक आए थे। खून की लकीरों के बीच से सिर्फ उसकी कातर निगाहें एकटक देख रही थीं – मानो पूछ रही हों, मैंने तो पूरी कोशिश की थी, रात-दिन एक कर दिया था, फिर यह क्यों? फिर यह क्यों? और मुझमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि उनसे नजर मिला पाऊं।
सब कुछ देखते-देखते ही हो गया था। अनुज सुबह-सुबह अपने दोस्तों के साथ निकल रहा था। उसने बस यही कहा था – ‘मां मैं दोस्तों के साथ पिकनिक पर जा रहा हूं। दोपहर को खाने पर मेरा इंतजार नहीं करना।’ 
उसे पता था कि रविवार को हम सब मिल कर भोजन करते थे। सप्ताह का यही एक दिन था जब तीन जनों का हमारा छोटा सा परिवार एक साथ होता था। मैंने उसके हाथों में सौ रुपए देते हुए कहा – ‘बेटा पानी के पास जाओ तो उसमें उतरना नहीं। ज्योतिषी ने पानी से खतरा बताया है।’
बेटा चला गया। पर थोड़ी ही देर में खबर आ गई। शिवनाथ बाईपास पर उनका एक्सिडेंट हो गया है। सभी घायलों को अस्पताल पहुंचा दिया गया है। चूल्हे पर जलती सब्जी छोड़कर हम हड़बड़ी में अस्पताल की ओर भागे। ताला चाभी पड़ोसी को दे गए कि खिड़की दरवाजे चेक कर घर को ताला लगा देना।
अस्पताल के बाहर एक छोटी सी भीड़ थी। कुछ परिचित चेहरे थे पर अधिकांश को हम पहली बार देख रहे थे। पता चला कि एक बच्चे ने दम तोड़ दिया है। दो को आईसीयू में रखा गया है। शेष बच्चों की मरहम पट्टी हो रही है।
हम सीधे काउंटर की तरफ भागे। आशंका सही निकली। अनुज को भी आईसीयू में ले जाया गया था। हम आईसीयू की तरफ भागे। चारों तरफ सन्नाटा था। कुछ लोग डरे सहमे से बाहर पड़ी बेंचों पर निढाल पड़े थे।
मानो सदियां बीत गईं। आईसीयू का दरवाजा खुला। एक खूबसूरत सा नवजवान डाक्टर बाहर आया। उसके चेहरे पर चिंता की गहरी लकीरें दिखाई दे रही थीं।
हमें देखकर उसने मुस्कराने की कोशिश की। कहा – ‘सिर खुल गया है। काफी ब्लीडिंग हुई है। हम पूरी कोशिश कर रहे हैं। आप लोग शांत रहें और प्रार्थना करें।’ इतना कहकर वह थके कदमों से चलता हुआ ड्यूटी रूम की तरफ बढ़ गया।
मैंने कसकर उनकी बाहें थाम लीं। उनका हाथ थरथर कांप रहा था। 20 साल के वैवाहिक जीवन में मैने उन्हें कभी इतना विचलित नहीं देखा था। मैंने उनकी आंखों में देखा। वहां आंसू की दो बूंदें झिलमिला रही थीं। उन्होंने आंखें भींच लीं और होठों ही होठों में कुछ बुदबुदाने लगे। मैंने उनके सीने पर सिर टिका दिया और सिसकने लगी।
दो या तीन घंटे बाद हमने कुछ डाक्टरों को हड़बड़ाते हुए आईसीयू की तरफ आते देखा। इनमें वह भी था। बिना किसी की ओर देखे सभी अन्दर चले गए। चंद मिनटों बाद ही वह देवदूत बाहर आया। उसने कहा – ‘ब्लीडिंग रुक नहीं रही है। सर्जरी करनी पड़ेगी। हम तैयारी कर रहे हैं, आप परिचितों को बुला लें। 4-6 यूनिट रक्त की आवश्यकता पड़ सकती है। तैयारी रखें।’ हम सभी का ब्लड ग्रुप एक ही था- बी पाजिटिव। हमने परिवार के कुछ और सदस्यों और मित्रों को भी फोन कर बुलवा लिया।
सर्जरी लगभग तीन घंटे तक चली। हमें काउंसिलिंग के लिए बुलाया गया। बेहद थका हुआ सा वह देवदूत ही हमसे मुखातिब हुआ। पर उसकी आवाज मजबूत थी। उसमें आश्वासन था। ‘आप लोगों की दुआ काम कर गई। आपरेशन सक्सेसफुल रहा है। ब्लीडिंग रुक गई है। पेशेंट के होश में आने के बाद ही यह पता चल पाएगा कि उसके दिमाग की हालत कैसी है। तब तक सब्र करें और ईश्वर से प्रार्थना करें।’
दो दिन तक यही सबकुछ चलता रहा। अनुज कभी आंखें खोलता, कभी उंगलियों से कुछ इशारा करने की कोशिश करता। हम उसकी हथेली थामने की कोशिश करते तो वह हमारी उंगली पकडऩे की कोशिश करता। ठीक उसी तरह, जैसे वह बचपन में हमारी उंगली पकड़ा करता था। पर उसके चेहरे पर अब वह बचपन वाली निश्छल मुस्कान नहीं थी। वहां गहन शांति का भाव था।
पांचवे दिन अनुज ने जब हमसे नजर मिलाई तो वहां पहचानने वाले भाव थे। पर जुबान अब भी खामोश थी। अब वह हाथों को थोड़ा-थोड़ा उठाने लगा था। रोज की तरह काउंसिलिंग होती थी। देवदूत की आवाज का आश्वासन दरकने लगा था।
वह हादसे की आठवीं रात थी। हम आईसीयू के बाहर वेटिंग हाल में ही पड़े हुए थे। तभी एक नर्स ने हमें झकझोर कर उठा दिया और अपने पीछे-पीछे काउंसिलिंग रूम की तरफ आने का इशारा किया। नींद एक झटके में गायब हो गई। अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था कि हमें रात को काउंसिलिंग के लिए बुलाया गया हो।
हम तेजी से आगे बढ़े और नर्स से पहले ही उस छोटे से कमरे में दाखिल हो गए। मेज के दूसरी ओर कोई नहीं था। हम बैठकर इंतजार करने लगे। थोड़ी ही देर में वह देवदूत बेहद थके हुए कदमों से हमारे करीब आया। उसने बैठने की कोशिश नहीं की बस अपने हाथ लटका दिए। ‘सब कुछ खत्म हो गया। हम उसे बचा नहीं पाए। मुझे माफ कर देना।’ देवदूत की आखों में नमी थी।
काफी देर तक हम उसी तरह बिना कुछ बोले, बिना पलक झपकाए बैठे रह गए। हमें काठ मार गया था। मेरे लिए बैठे रहना असंभव हो गया था। शरीर मेरे वश में नहीं था। मैं गिरती चली जा रही थी, किसी गहरी खाई की तरफ, जिसकी गहराई का कोई ओर-छोर नहीं था।
फिर क्या हुआ मुुझे कुछ याद नहीं। लोगों के शोरगुल से मेरी आंखें खुलीं। मैं कैजुअल्टी के बेड पर पड़ी थी। यह बेड कैजुअल्टी के दरवाजे के पास ही था। शोरगुल की आवाज बाहर से आ रही थी। पकड़ो-पकड़ो मारो-मारो की आवाजें आ रही थी। टूटते-चटकते शीशों की आवाजें आ रही थीं। तभी मैंने कुछ सिक्यूरिटी वालों को देखा जो किसी को अपने घेरे में लेकर तेजी से अस्पताल में प्रवेश कर रहे थे। भीड़ से बचने के लिए वे उसे कैजुअल्टी में ही लेकर आ गए और पीछे दरवाजा बंद कर दिया। उस शख्स को उन्होंने मेरे बाजू के बेड पर ही लिटा दिया और पूरा स्टाफ उसे घेर कर खड़ा हो गया।
फिर एक-एक कर उत्तेजना कम होती गई और बाजू वाले बेड के आसपास से भी लोग छंटने लगे। तभी मेरी नजर मरीज के चेहरे पर पड़ी। यह वही देवदूत था। चेहरा खून से लथपथ था। चेहरे पर सूजन थी। एक आंख लगभग बंद हो चुकी थी। उसके कपड़े फटे हुए थे। ताजा ताजा पोंछे गए चेहरे पर फिर से रक्त की धारियां दिखने लगी थीं। वह एकटक मुझे देख रहा था। उन निगाहों में सवाल थे।
बाद में पता चला कि कुछ लोगों ने स्थानीय नेताओं को बुला लिया था। उन्होंने अस्पताल को ही इन मौतों के लिए जिम्मेदार ठहरा लिया था और शायद हादसे के लिए भी। वो लोग अस्पताल को फूटी कौड़ी नहीं देना चाहते थे। उन्होंने अस्पताल में तोडफ़ोड़ करने के साथ ही स्टाफ के लोगों को पीटा था। तभी देवदूत उन्हें दिखाई दे गया था। किसी ने बता दिया था कि यही न्यूरोसर्जन है जिसने आपरेशन किया था। लोगों ने उसे खींच लिया था और बुरी तरह से धुन दिया था। जब हमने सारा मामला साफ करने की कोशिश की तो इन नेताओं ने हमें यह कहकर चुप करा दिया कि ‘हम बात कर रहे हैं, आप चुप रहो।’
शोक की उन घडिय़ों में बात करने की इच्छा भी नहीं थी। हम चुप रहे। पर आज सोचती हूँ कि क्या हमारी यह चुप्पी पाप नहीं है। नेता जी ने अपनी टीआरपी बढ़ी ली, हमारे कुछ पैसे बच गए पर अस्पताल और डाक्टर को क्या मिला? हो सकता है ऐसे एक या दो हमलों को वह बर्दाश्त कर ले पर यदि ऐसे हमले बार-बार होते रहे तो?
– दीपक रंजन
(जब दिल में दर्द उठता है और उसे अभिव्यक्ति देने का कोई मार्ग नहीं सूझता, शायद तभी कविताओं का जन्म होता है। पर मुझमें वह काबीलियत नहीं इसलिए मैंने गद्य रचना की कोशिश की है। यह मेरी पहली कोशिश है। त्रुटियों के लिए क्षमा चाहूंगा। पर यदि रचना कहीं आपको छू जाए तो टिप्पणी अवश्य कीजिएगा, इंतजार रहेगा।)

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