भिलाई। विश्व के पंचम् मूल जगद्गुरु स्वामी श्री कृपालु जी महाराज की कृपाप्राप्त प्रचारिका गोपिकेश्वरी देवी जी ने अपने 50 वें प्रवचन शृंखला के ग्यारहवें दिन कहा कि हमको केवल कर्म से आनंद की प्राप्ति नहीं होगी और न ही हम केवल कर्म धर्म से दु:खों से छुटकारा प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने समझाया कि कर्म धर्म के पालन का सही अर्थ है कि हम उस कर्म धर्म में भक्ति का योग कर लें। भक्तिविहीन कर्म धर्म एक परिश्रम मात्र ही है जो अधिकतम स्वर्ग देकर पुन: चौरासी लाख योनियों में दु:ख भोगने की स्थिति में पहुँचा देता है क्योंकि कर्म नश्वर फल देता है। उससे आनंदप्राप्ति का हमारा लक्ष्य कभी हल नहीं होगा। सारांश यह है कि कर्म को भक्ति का आश्रय अर्थात् सहारा चाहिए। इसके आगे अगर हम ज्ञान मार्ग की ओर दृष्टि करें तो ज्ञान मार्ग भी भक्ति और शरणागति के बिना अंतिम फल नहीं देगा। ज्ञान की अंतिम सीमा है ब्रम्हज्ञान और मोक्ष। बिना भक्ति के ये दोनों ही प्राप्त नहीं हो सकते। अन्य मार्ग जैसे योग आदि जो हम सुनते हैं वह भी बिना भक्ति के अधूरे ही हैं। आज के युग में न ही कोई कर्म धर्म का सही सही पालन कर सकता है और ना ही ज्ञानमार्ग का अधिकारी बन सकता है। ये दोनों ही अत्यधिक कठिन हैं इसलिए वर्तमान कलियुग में भक्तिमार्ग ही श्रेयस्कर है।
भक्तिमार्ग की व्याख्या में समझाया गया कि भक्ति इसलिए आज के युग के जीवों के लिए पालनीय है क्योंकि यह भक्ति न किसी नियम आदि से बँधी है और न ही इसमें अधिकारित्व की ही अपेक्षा है।
प्रत्येक जीव जो न ही संसार में अधिक आसक्त है और न संसार में वह भक्तिपथ पर चल सकता है और यही स्थिति सब जीवों और मनुष्यों की है। भक्ति को किसी का आश्रय भी नहीं चाहिए जैसे कर्म और ज्ञान को चाहिए और जो फल कर्म और ज्ञान से प्राप्त होते हैं या अन्य किसी भी साधन से प्राप्त होते हों वह भक्ति से बिना किसी अन्य परिश्रम के प्राप्त हो जाती है।
भक्ति से जीव का अंत: करण शुद्ध हो जाता है उसके समस्त कर्मबंधन समाप्त हो जाते हैं पंचक्लेश, पंचकोश, त्रिकर्म, त्रिदोष सब छिन्न.भिन्न हो जाते हैं और जीव को निरन्तर रहने वाला असीम आनंद या सुख प्राप्त हो जाता है जिस सुख पर कभी भी किसी प्रकार से दु:ख का अधिकार नहीं हो सकता। अर्थात् भक्ति ही दु:ख का नाश करेगी और सुख देगी। लेकिन यह भक्ति यकायक ही कोई नहीं कर सकता।
इसके लिए एक माध्यम की आवश्यकता होती है और वह माध्यम है एक श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष। उसी के मार्गदर्शन में पहले एक साधना भक्ति हमको करनी होगी तब वही कृपा के द्वारा हमको दिव्य प्रेम का दान करेंगे क्योंकि उसे अपने अंत: करण में धारण करने के लिए दिव्य अंत:करण चाहिए और वह दिव्य अंत:करण साधना भक्ति से बनेगा। इसलिए भक्ति तत्व को अब हमें गहराई से समझना है और इसी मार्ग पर चलने का विचार करना है। भक्तिमार्ग को और गहराई से आगे के प्रवचनों में समझाया जायेगा। यह प्रवचन शृंखला 31 दिसंबर तक कोंटा के श्री माणिकेश्वर शिव मंदिर प्राँगण में चल रही है।