दुर्ग। “भारतीय सांस्कृतिक धारा – अनादि से आज तक” पर आयोजित कायर्शाला में अपने विचार व्यक्त करते हुए विभिन्न मनीषियों ने कहा कि हमें अपनी जनजातीय परम्पराओं को ईमानदारी से लिपिबद्ध करना चाहिए। बीआईटी दुर्ग के सभागार में दुर्ग विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित इस दो दिवसीय कायर्शाला में आदिवासी जनजातीय समाज की प्रतिनिधि जयमति कश्यप, उग्रेश मरकाम, अंजनी मरकाम, रमेश हिड़ामे, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. कुलदीपचंद अग्निहोत्री, लखनलाल कलामे, लक्ष्मण मरकाम ने अपने वक्तव्य रखे। जयमति कश्यप ने कहा कि जनजातीय लोग प्रकृति के पुजारी हैं तथा प्रकृति से प्राप्त होने वाले हर वस्तु को बांट कर उपयोग करने के पक्षधर हैं। हमारे हर संस्कार अर्थात जन्म, विवाह, मृत्यु आदि सभी में लोकगीतों के माध्यम से परस्परिक सौहार्द्ध का संदेश दिया जाता है। जनजातीय समाज में पारंपरिक नियमों का पालन तथा अनुशासन प्रमुख विशेषता है। वतर्मान समय के ज्वलंत विषय पर्यावरण संरक्षण का पालन आदिवासी निरंतरकाल से करते आ रहे है। जनजातीय समाज की संस्कृति वृहद् एवं आत्मसंतुष्टि की प्रतीक है।
उग्रेश मरकाम एवं उनकी पत्नी अंजनी मरकाम ने अपने संबोधन में पारंपरिक जनजातीय लोकगीतों के माध्यम से अत्यंत भावपूर्ण प्रस्तुति दी। पेशे से शासकीय विद्यालय में शिक्षक दम्पति ने गोंडी भाषा में जनजातीय समाज के विवाह एवं मृत्यु संस्कार का विस्तार से उल्लेख किया। वीडियो क्लिपिंग के माध्यम से पारंपरिक जनजातीय वेशभूषा में मरकाम दम्पति ने जनजातीय संस्कारों का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया। मृृत्यु को जीवन का सत्य मानकर ज्यादा निराश नही होने का भी उन्होंने जिक्र किया। प्रकृति का संधृत दोहन करने पर बल देते हुए मरकाम दम्पश्रि ने कहा कि आदिवासी अथवा जनजातीय समाज के लोग प्रकृति के उपासक होने के कारण कभी पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते।
कार्यक्रम के संयोजक डॉ. अनिल पाण्डेय जी ने पावर प्वाईन्ट प्रस्तुति के माध्यम से भारतीय संस्कृति के प्रभाव पर प्रकाश डाला। संचालक डॉ. शकिल हुसैन ने विभिन्न सत्रों की विषय वस्तु की सारगर्मित विवेचना की। आयोजन सचिव डॉ. विकास पंचाक्षरी जी ने धन्यवाद ज्ञापन किया। दुर्ग विश्वविद्यालय, दुर्ग के माननीय कुलपति प्रो. एन.पी.दीक्षित जी ने अपने संबोधन में भारतीय सांस्कृतिक परंपरा को रोचक उदाहरणों के माध्यम से प्रस्तुत किया।
दुर्ग पॉलिटेकनिक कॉलेज से इलेक्ट्रिकल में डिप्लोमाधारी रमेश हिड़ामे ने नागवंशी गोंड़ समाज की रीतिरिवाज एवं परम्पराओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि मातृभाषा में ही हम जनजातीयों के विषय में वास्विक जानकारी प्राप्त कर सकते है। जामुन के वृक्ष को शीतलता एवं शांति के प्रतीक निरूपित करते हुए वैवाहिक संस्कार में इसकी लकड़ी के प्रयोग का रमेश हिडामे ने उल्लेख किया।
जनजातीय समाज के एक अन्य प्रतिनिधि लखनलाल कलामे ने आदिवासी संस्कृति को अनवरत बताते हुए कहा कि प्रकृति की सेवा ही हमारा धर्म है। आदिवासी समाज परस्पर सहयोग की सहकारिता की भावना पर आधारित है। समाजिक व्यवस्था का सुचारू ढंग से पालन जनजातीय समाज की प्रमुख विशेषता है।
रक्षा मंत्रालय, भारतीय नौ-सेना, आयुध सेवा के डिप्टी डायरेक्टर लक्ष्मण मरकाम जी ने अपनी स्वरचित कविता के माध्यम से उपस्थित प्रतिभागियों को झकझोर दिया। तृतीय तकनीकी सत्र में श्री लक्ष्मण मरकाम जी ने विविधता से भरें आदिवासी समाज की विशेषताओं का उल्लेख किया। उन्होने कहा कि जनजातीय संस्कृति से जुडी सत्य बातें आधुनिक समाज के लोग जानते ही नही। सभी सभ्यताएं वनों से उत्पन्न हुई है। अत: हम सब वनवासी है। गोंड समाज को अन्नपालक निरूपित करते हुए श्री लक्ष्मण मरकाम जी ने बाल्मीकी रामायण के साथ-साथ गौंड़ी रामायण के होने की भी महत्वपूर्ण जानकारी दी। अन्त में उन्होने जनजातीयों के संरक्षण के विषय में दो महत्वपूर्ण पंक्तियां प्रस्तुत कि:-
“घर सजाने का तसब्बुर तो बहुत बाद का है,
पहले तो इस घर को बचायें कैसे”
हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. कुलदीपचंद अग्निहोत्री ने अपने उद्बोधन में कहा कि आदिवासी समाज के मूल तत्व को सदैव संरंक्षित रहना चाहिए। आधुनिकता की अंधी दौड में हम अपनी विचारधारा दुसरों पर थोपते है। यह सवर्धा गलत है। हर अच्छे बुरे का निर्णय मनुष्य अपने संस्कारों के आधार पर करता है। हमे जनजातीय समाज एवं उसकी परंपराओं का सम्मान करना चाहिए।