इंस्टाग्राम पर तुम्हारी होली वाली सेल्फी देखी और मन जलन और कुढऩ से भर उठा। पीले, हरे, सुर्ख रंग से तुम्हारा चेहरा खिला-खिला सा… कितना प्यारा लग रहा था। और हम एक घंटा नहाने के बाद भी गुरिल्ला जैसे दिख रहे थे। हमारे यहां प्यार से लोग एक दूसरे को पकड़-पकड़ कर उसका मुंह काला करते हैं। सेल्फी सिर के आगे से लो या पीछे से, एक जैसा ही लगता है। हमारे यहां की होली विचित्र है। होली जलते देखना जरूरी है। 100 काम छोड़कर भी हम ऐसा करते हैं। दूसरे दिन सुबह होली की राख चुनने भी जाते हैं। होलिका हमारी रिश्तेदार जो थी। अस्थि चुनना हमारा फर्ज है। भक्त प्रह्लाद तो जला नहीं था। इसलिए राख में उसका अंश हो नहीं सकता। फिर रंग पंचमी के दिन, मुंह काला और शाम को गुलाल लगाकर पांव छूने का रिवाज। देश के वैज्ञानिक भले ही कुछ नया न खोज पा रहे हों, पंडित जी हर साल एक नया अंधविश्वास अपनी पोटली से निकाल लाते हैं। अखबार वाले बॉलीवुड गॉसिप की तरह उसे नमक मिर्च लगाकर छापते हैं। बधाई हो, देश आगे बढ़ रहा है।
– दीपक रंजन दास