भिलाई। प्रसिद्ध पत्रकार एवं लेखक डॉ हिमांशु द्विवेदी का मानना है कि किसी बात को कब, कहां और कैसे कही जाए, इसका सलीका हो तो उद्देश्य में सफलता मिलती ही है। उन्होंने अपने जीवन के प्रसंगों का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्हें इसका सुफल बार-बार प्राप्त होता रहा है। आईसीएआई भवन में प्रेस क्लब द्वारा आयोजित एकल व्याख्यान को संबोधित करते हुए उन्होंने बताया कि 17 साल की उम्र में वे एकाएक ही पत्रकार बन गए थे। इसके लिए उन्हें अपने परिवार का कोप भी सहना पड़ा। दीदी ने पीएमटी पास कर एमबीबीएस में प्रवेश कर लिया था। घर वाले चाहते थे कि बेटा इंजीनियरिंग करे। पर उनका झुकाव आर्ट्स की तरफ था। वे राष्ट्रीय स्तर की भाषण प्रतियोगिता एवं वाद विवाद प्रतियोगिता जीत चुके थे। दीदी ने जहां पिता की इज्जत बढ़ा दी थी वहीं उनका कदम कथित रूप से नाक कटवाने वाला था। इसलिए परिवार ने हाथ खींच लिया।बीए करने के लिए फीस भरनी थी। आय का कोई साधन था नहीं। तभी दैव योग से ‘आज’ का ग्वालियर संस्करण प्रारंभ हुआ। उन्होंने आवेदन दिया और नौकरी मिल गई। पहले वेतन पर अन्य पत्रकारों की तरह वे भी मायूस हुए। शेष लोगों ने जाकर असंतोष जाहिर कर दिया पर हुआ कुछ नहीं। वे कुछ देर बाद संस्करण की प्रमुख हेमलत जी के पास पहुंचे। पहले तो उन्होंने झिड़क दिया। पर जब उन्होंने कहा कि वे जीवन के प्रथम वेतन पर उनका धन्यवाद करने आये हैं तो वे कुछ नरम पड़ीं। इसके बाद उन्होंने कहा कि चपरासी का वेतन भी उनसे ज्यादा है। काम बन गया। वेतन 400 से 700 रुपए हो गया।
पत्रकारिता के संघर्ष का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि अयोध्या विवाद से लेकर उपचुनावों तक की महत्वपूर्ण रिपोर्टिंग का उन्हें मौका मिला। ‘आज’ के अन्यान्य संस्करणों में उनकी खबरें नाम के साथ छपीं पर अपने ही संस्करण ने उन्हें मायूस किया। यहां जलनखोर वरिष्ठों ने समझा दिया था कि नाम छापने से खबर लिखने वालों का भाव बढ़ जाता है। वरिष्ठों ने उन्हें कई बार अपमानित भी किया। उन्होंने ऊपर तो कुछ नहीं कहा पर भीतर ही भीतर ठान लिया कि इन्हें सबक सिखाना है।
इसके बाद उन्हें भास्कर ग्रुप के साथ काम करने का मौका मिला। पत्रकारिता में कद लगातार बढ़ रहा था। ऐसे में एक बार फिर उन्हें ‘आज’ से बुलावा मिला। वे दोबारा ‘आज’ में आए तो अपने वरिष्ठों से ऊपर के ओहदे पर। उन्होंने पूर्व की प्रताड़नाओं का गिन गिन कर बदला लिया।
डॉ द्विवेदी बताते हैं कि क्रोध और प्रतिशोध की भावना को उन्होंने अपने भीतर पाला और स्वयं को निखारने पर ज्यादा ध्यान दिया। अपने काम को बेहतर से बेहतर करने की चेष्टा ने ही उनका कद बढ़ाया और फिर जब मौका मिला तो भीतर जमा आक्रोश ज्वालामुखी बनकर फट गया।
संपादकीय विभाग की निरन्तर घटती मान मर्यादा का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इन दिनों संपादकीय पर प्रबंधन हावी है। छोटी छोटी बातों के लिए भी संपादक तक को प्रबंधन के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। उन्होंने कहा कि लेखन एक नैसर्गिक क्षमता है जबकि प्रबंधकीय गुर सीखे जा सकते हैं। तात्पर्य यह कि प्रबंधक कभी संपादक नहीं हो सकता पर संपादक चाहे तो प्रबंधक हो सकता है। इसलिए उन्होंने प्रबंधन सीखना शुरू किया और अब लम्बे समय से एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय दैनिक ग्रुप हरिभूमि के प्रबंध सम्पादक हैं।
हरिभूमि से अपने जुड़ने का रोचक किस्सा सुनाते हुए उन्होंने कहा कि स्वदेश का प्रभार लेकर वे रायपुर आए थे। पर हालात नियंत्रण से बाहर थे। एक अखबार छापने का ठेका मिला था उनके आने से पहले ही वह जा चुका था। उन्होंने हरिभूमि का रायपुर संस्करण छापने की कोशिश की पर ट्रायल फेल हो गया। हरिभूमि ने उन्हें जुड़ने का प्रस्ताव दे रखा था। उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया। पहले कुछ दिन बिलासपुर और फिर रोहतक में रहकर उन्होंने काम को समझा। फिर लौटकर हरिभूमि के अनेक संस्करणों के प्रबंध सम्पादक बन गए।
किसी भी क्षेत्र में सफलता के लिए गुरू के होने को उन्होंने बेहद जरूरी बताया। भास्कर के दिनों की याद करते हुए उन्होंने कहा कि सम्पादक लक्ष्मीनारायण शीतल से उन्हें बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। समाचार संपादन में उनका कोई मुकाबला न था। उन्हें वे पत्रकारिता में अपना गुरू मानते हैं। वे खबर लिखने से ज्यादा उसके संपादन में यकीन रखते थे।
40 देशों की यात्रा कर चुके डॉ हिमांशु द्विवेदी ने कहा कि परिवार का प्यार और पिता की नजरों में सम्मान हासिल करने का सपना भी उनका जल्द ही पूरा हो गया। बड़ी दीदी की शादी के लिए उन्होंने ग्वालियर का एक महल नि:शुल्क प्राप्त कर लिया था। विवाह समारोह में आशीर्वाद देने के लिए 7 मंत्री और 32 विधायक पहुंचे थे। घर वालों का सम्मान बढ़ा और उनकी पत्रकारिता को स्वीकार कर लिया गया। पर माता-पिता को अपने साथ रखने का सौभाग्य उन्हें वर्षों बाद अब जाकर मिला है।
उन्होंने साथी पत्रकारों को समझाइश दी कि काम से बढ़कर आपका कोई मूल्य नहीं है। समय से पहले अच्छा वेतन और ऊंचा ओहदा नहीं मिलता। इसलिए अपने काम को बेहतर ढंग से अंजाम देना ही आपके हाथ में है। अपने जीवन के एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि एक अखबार से वे इस्तीफा दे चुके थे और दूसरे दिन दूसरे संस्थान में जाने वाले थे। पर अंतिम दिन भी उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया और देर रात जब घर जाने के लिए निकले तो उनके सीनियर की आंखों में आंसू थे। उन्होंने उनका कंधा थपथपाते हुए कहा था कि तुम्हारे जैसे निष्ठावान पत्रकार नहीं देखा।
इस अवसर पर उच्च शिक्षा मंत्री प्रेम प्रकाश पाण्डेय, अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष सुरेन्द्र सिंह केम्बो, वरिष्ठ पत्रकार सुभाष राव एवं हितवाद के स्थानीय संपादक ईवी मुरली मंचासीन थे।