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गुरू के पास हमेशा होता है अपने शिष्य के लिए कुछ नया

Jul 27, 2018

Baldev Bhai Sharmaनई दिल्ली (दीपक रंजन दास)। नेशनल बुक ट्रस्ट (राष्ट्रीय पुस्तक न्यास) के चेयरमैन श्रद्धेय बलदेव भाई शर्मा से 20 वर्षों के अंतराल के बाद पुन: मुलाकात हुई। हमेशा की तरह एक बार फिर उनसे कुछ नया सीखने को मिला। कुछ ऐसा करने की प्रेरणा मिली जिसे हम अपने पीछे छोड़कर जाने का संतोष कर सकें। 1990 के पूर्वार्द्ध में रायपुर से दैनिक स्वदेश का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। पत्रकारिता का थोड़ा बहुत अनुभव था। एक अंग्रेजी दैनिक नागपुर से प्रकाशित ‘द हितवाद’ एवं एक हिन्दी दैनिक ‘बिलासपुर टाइम्स’ में काम कर चुका था। पत्रकारिता में मेरे गुरू श्रद्धेय शिव श्रीवास्तव के सान्निध्य में जो कुछ सीखने को मिला था, उसीकी थाती लिए मैंने रायपुर का रुख किया।स्वदेश एक बड़ा अखबार था। छत्तीसगढ़ का पहला रंगीन अखबार। दैनिक युगधर्म के वरिष्ठ पत्रकारों का यहां सान्निध्य मिला। हमारे संपादक थे श्रद्धेय बलदेव भाई शर्मा। वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक भी थे। प्रत्येक खबर पर उनकी तीक्ष्ण दृष्टि होती थी। मैं था करेला और नीम चढ़ा। एक तो मातृभाषा बंगाली और ऊपर से अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई। हालांकि भिलाई में पला बढ़ा होने के कारण हिन्दी ठीक थी पर वाक्यों में लिंग संबंधी गलतियां कर जाता था।
उन्होंने न केवल मेरी हिन्दी को काफी हद तक दुरुस्त कर दिया बल्कि कार्टून स्ट्रिप बनाने का अवसर दिया। फोटोग्राफी का भी अवसर मिला। जल्द ही प्रांतीय समाचारों का नाइट डेस्क प्रभारी बना दिया गया।
स्वदेश में ही कम्प्यूटरों से मेरा परिचय हुआ। यहां एप्पल मैकिनटोश के कम्प्यूटर लगे थे। आपरेटरों ने भोपाल से प्रशिक्षण प्राप्त किया था। कम्प्यूटर रूम में किसी अन्य का घुसना मना था। संपादक की अनुमति से मुझे प्रवेश मिल गया। कम्प्यूटर चलाना सीख गया। देवनागरी में फोनेटिक की-बोर्ड पर काम करना सीखा। पेस्टिंग सीखी। छपाई के लिए लगी ओरियएंट सैटेलाइट की फोर कलर मशीन को करीब से देखा और समझा। पेस्टिंग से लेकर स्याही, प्लेट आदि का बारे में जानकारी हासिल की। मुझे नहीं लगता आज के किसी भी पत्रकार को इतनी जानकारी अखबार की होती होगी।
उनके सान्निध्य में ही समाचारों के दूरगामी परिणामों और प्रभावों के बारे में सोचने की शक्ति विकसित हुई। प्रत्येक समाचार को बारीकी से देखने की आदत पड़ी। समाचारों को संपादित करने का गुर भी सीखा। दो बड़ी गलतियां उस दौरान हमसे हुई। अति उत्साह और लापरवाही से हुई इन गलतियों ने कुछ और अहम सबक भी दिए। इनमें से एक था राजिम में हुए फसाद में कथित रूप से थानेदार की मौत और दूसरा था पेस्टिंग में एक श्रीमान जोशी की जगह दूसरे श्रीमान जोशी की तस्वीर का छप जाना। इन दोनों ही घटनाओं ने अतिरिक्त सतर्कता बरतने के लिए प्रेरित किया।
इसके 10 साल बाद उनसे दिल्ली में मुलाकात हुई थी। उन दिनों वे पाञ्चजन्य के संपादक थे। एक नजर में ही पहचान गए। आशीर्वाद दिया और इस बात पर प्रसन्नता भी जाहिर की कि मैंने पत्रकारिता के मूल्यों को छोड़ा नहीं है। इस बार की मुलाकात इस मुलाकात के लगभग 20 वर्ष बाद हुई।
दिल्ली पहुंचते ही मैंने उन्हें फोन किया। उन्होंने गाजियाबाद घर आने का न्यौता दिया। उन्होंने बताया कि अब वे हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला स्थित एक विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बन गए हैं और वहीं शिफ्ट हो रहे हैं। पर साथ ही यह भरोसा भी दिया कि दूसरे दिन दिल्ली में ही एनबीटी के दफ्तर में उनसे मुलाकात हो सकती है।
यथासमय मैं उनके दफ्तर में पहुंचा। मुलाकात होते ही उनके चेहरे पर प्रसन्नता की चमक आ गई। ढेर सारी बातें हुर्इं। स्वदेश परिवार के छोटे से छोटे व्यक्ति को भी उन्होंने याद किया और बड़े चाव से पुराने दिनों की चर्चा करते रहे। उन्होंने एनबीटी में अपने कामकाज के बारे में बताया। उन्होंने यहां एक नई पत्रिका ‘पुस्तक संस्कृति’ का प्रकाशन प्रारंभ किया है। इसकी कुछ प्रतियां उन्होंने मुझे भेंट की और काम के नए अवसरों के विषय में बताया। यह पत्रिका साहित्यकारों पर केन्द्रित है। उन्होंने ‘सहजता की भव्यता’ नामक एक ग्रंथ स्वहस्ताक्षर से मुझे भेंट किया।
जब मैं वहां से चला तो मन प्रफुल्लित था। 5 दिन की दिल्ली की गर्मी में भागदौड़ की थकान काफूर हो चुकी थी। नई ऊर्जा का संचार हो चुका था। किसी ने सच ही कहा है – ‘गुरू से जब भी मिलोगे…. कुछ लेकर ही लौटोगे।’

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