भिलाई। हादसे अकसर जीवन का रुख मोड़ देते हैं। शांता के साथ भी ऐसा ही हुआ। 2008 में एक औद्योगिक हादसे ने उनके पति को मरणासन्न कर दिया। डाक्टरों ने जान तो बचा ली पर आगे के जीवन के बारे में आश्वस्त न कर सके। शांता ने पति को दोबारा खड़ा करने की ठान ली। दिन रात मां बनकर उनकी सेवा की। सफलता मिली। पति ठीक होकर काम पर लौट गए। इस हादसे ने शांता के जीवन को एक नया मकसद दे दिया। दोस्तों की सलाह पर उन्होंने Autism से प्रभावित बच्चों की जिम्मेदारी उठा ली। अब उनके अर्पण स्कूल में 35 ऐसे बच्चे हैं जिन्हें अपना कहते हुए उनके परिवारों को भी शर्म आती है। न् 2008 में भिलाई इस्पात संयंत्र में एक बड़ा हादसा हुआ। विद्युत उपकरण में हुए विस्फोट से कई कार्मिक झुलस गए। असीम कुमार नंदी भी 90 फीसदी झुलस गए। संयंत्र द्वारा संचालित जेएलएन चिकित्सालय एवं अनुसंधान केन्द्र के चिकित्सकों ने एक बार फिर अपनी क्षमताओं का परिचय दिया और उन्हें मौत के मुंह से खींच लिया। यहां का बर्न वार्ड पूरे मध्य भारत में अपनी दक्षता के लिए जाना जाता है। पर चिकित्सक असीम के भावी जीवन के बारे में आश्वस्त नहीं कर पाए। हालांकि शरीर के अनेक हिस्सों में ग्राफ्टिंग कर त्वचा लौटा दी गई थी पर कुछ हिस्से छूट गए थे। चिकित्सकों का कहना था कि असीम अब कभी उठ बैठ या चल फिर नहीं पाएंगे। यहां तक कि उनके लिए हस्ताक्षर करना या अपने दैनन्दिन कार्य करना भी कठिन होगा।
इसके बाद शुरू हुआ शांता का संघर्ष। बिजली के शोलों ने न केवल असीम के शरीर को घायल किया था बल्कि उनके दिमागी संतुलन को भी छीन लिया था। कोई दीवार को भी छूता तो वे चीख पड़ते। उनके रिहैबिलिटेशन के लिए फिजियोथेरेपिस्ट नियुक्त किया गया। वह 4000 रुपए महीना लेता था। बीएसपी से डीए और बेसिक के 8000 रुपए ही मिलते थे। फिजियोथेरेपिस्ट का खर्च भारी पड़ता था। शांता ने खुद ही फिजियोथेरेपी की बारीकियां सीख लीं। दो माह बाद थेरेपिस्ट की छुट्टी कर दी गई और शांता ने यह जिम्मेदारी खुद उठा ली।
शांता बताती है कि यह बड़ा कठिन दौर था। अपनी लाचारी से खीझा असीम कभी शांता को पीटते तो कभी एकमात्र पुत्र अमीत कोे। बात बात पर झल्ला जाते। भोजन की थाली फेंक देते। बीएसपी ने पति की जगह नौकरी का आॅफर दिया था। इसे सुनकर असीम की आंखों में आंसू आ गए थे। पत्नी पर आश्रित होने के ख्याल से ही उनका मन खिन्न हो गया था। शांता ने नौकरी ठुकरा दी और पति को दोबारा खड़ा करने में जुट गई। अंतत: 2009 की जनवरी में असीम ने ड्यूटी ज्वाइन कर ली। इसके बाद कहीं जाकर असीम हादसे के सदमे से बाहर आ पाये।
इधर सेवा के दरम्यान शांता में बड़ी तब्दीलियां आ चुकी थीं। उसने स्पेशल बच्चों के स्कूल मुस्कान में नौकरी कर ली। इसके बाद नेहरू नगर स्थित हेल्पिंग चाइल्ड में काम किया। फिजियोथेरेपिस्ट प्रतिमा, आनंद शर्मा एवं श्री बालाजी की प्रेरणा से 2012 में उसने आॅटिज्म के शिकार बच्चों के लिए एक स्कूल प्रारंभ किया। 2013 में इसका पंजीयन भी हो गया। तब से शांता ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
शांता बताती हैं कि 5 बच्चों से शुरू हुए अर्पण स्कूल में आज 35 बच्चे हैं। ये वो बच्चे हैं जिन्हें उनके माता-पिता कहीं लेकर नहीं जाते। घर पर भी उन्हें छिपाकर रखा जाता है। न तो ये बच्चे मेहमानों से मिलते हैं और न ही किसी समारोह में शामिल होते हैं। उनकी शिक्षा दीक्षा का प्रबंध तो दूर, उन्हें अपने नित्य कर्म के लिए प्रशिक्षित करने की भी कोशिश नहीं की जाती।
आज अपनी टीम के साथ शांता इन बच्चों का जीवन बदलने में जुटी हुई हैं। बेटा भी अब नौकरी करने लगा है। पति और पुत्र अर्पण में अंशदान करते हैं। इसके अलावा मित्र तथा शुभचिन्तक भी मदद करते हैं। कुछ लोगों ने यहां काम करने वाले 9 लोगों के स्टाफ के वेतन की जिम्मेदारी उठा रखी है। स्टाफ में स्पेशल एजुकेटर रेखा यादव, डांस टीचर ज्योति सिंह, स्पीच थेरेपिस्ट अर्चना, क्राफ्ट टीचर अर्चना, लेखाकार रूपाली मिश्रा, फिजियोथेरेपिस्ट राकेश पाल, रसोइया माया सिंह, ड्राइवर माखनलाल और सहयोगी मोनिका शामिल हैं।
दो पालियों में संचालित इस स्कूल में शांता सुबह 9 बजे से देर शाम 6-7 बजे तक उपस्थित रहती हैं। इन बच्चों के जीवन में थोड़ी सी खुशहाली लाने के लिए वे हर आने जाने वाले से मदद की अपील करती हैं।
I was so touched with this article as I am a parent of autistic child,i believe nothing is impossible only thing is true dedication and hard work…surely we can achieve success..I appreciate the sister who fought all odds of life…May God bless and strengthen her to serve the society especially “God’s children”…