भिलाई। आज पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। महिलाओं के हक में यह दिन पहली बार अमरीका की समाजवादी पार्टी ने 1909 में मनाया। तब से अब तक गंगा में काफी नीर बह गया है। महिला की स्थिति समाज में बेहतर हुई है पर इसके साथ ही महिला और पुरुषवादी सोच के नए फलसफे से एक नए संघर्ष की शुरुआत भी हो चुकी है। जब-जब महिलाओं के अधिकारों की बात होती है तब-तब उसकी सुरक्षा का मुद्दा सर्वोपरि होता है। अबोध बच्चियों से लेकर वृद्धावस्था में पहुंच चुकी महिलाएं कामांधों का शिकार बन रही हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मानसिक स्वास्थ्य को हमने कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। घरों में कहीं बहुएं प्रताड़ित हो रही हैं तो कहीं सास प्रताड़ित हो रही है। सवाल यह उठता है कि मां ने भोगे सारे कष्ट तो सभी अधिकार पत्नी के कैसे?भारत में यह समस्या और भी जटिल है जहां उच्च वर्ग-वर्ण के लोग निचली जाति की महिलाओं को अपनी संपत्ति मानकर चलते हैं। हमें इस सवाल का भी जवाब ढूंढना है कि जब एक बच्चे को बड़ा करने में सर्वाधिक कष्ट उसकी मां उठाती है तो उसपर सौ फीसदी हक उसकी पत्नी का कैसे हो सकता है। कभी दबाव में तो कभी खामख्याली में हमारे नेताओं ने एक से एक कानून बना दिये। जायज नाजायज शिकायतों के चलते पति के बूढ़े माता-पिता पर जेल जाने का खतरा मंडराने लगा। पति भावनात्मक भयादोहन का शिकार होने लगे। ऐसे भयंकर अपराध होने लगे कि सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा।
ऐसे समय में महिला दिवस पर ‘बेहतरी के लिए समानता’ को बहस का मुद्दा बनाया जाना लाजिमी है। बालिका को जीवन का, शिक्षा का, बेहतर भोजन का अधिकार मिलना ही चाहिए, इसमें कोई संदेह नहीं है। पर इसके साथ ही उसे अपने पुरुष प्रतिरूप के साथ सहअस्तित्व के लिए भी तैयार किया जाना चाहिए। सहशिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए। बालिका विद्यालय, बॉयज स्कूल, कन्या महाविद्यालय जैसे शिक्षण संस्थान इनके बीच की खाई को और गहरा ही करते हैं।
बदले दौर में एकल परिवारों की संख्या बढ़ रही है पर महिलाएं आज भी अपने से ज्यादा कमाने वाला पति ही ढूंढती है। उसे अपने से ज्यादा शिक्षित वर चाहिए। इसके पीछे कहीं न कहीं पुरुषों पर निर्भरता ही झलकती है। समानता के लिए यह स्थिति बदलनी चाहिए।
परिवार के भीतर महिला के सम्मान के लिए भी स्वयं महिलाओं को ही आगे आना होगा। यदि बहू को सम्मान चाहिए तो उसे सास का भी सम्मान करना होगा। हमेशा इस बात को याद रखना होगा कि वह कभी बेटी थी, अब बीवी बनी है तो कल को सास भी बनना है। परिवार के लिए संकट और दुष्वारियां खड़ा करने वाली बहुएं भी महिलाएं ही हैं। पुरुष ऐसे मामलों में दो पाटों के बीच फंसा होता है। बीवी की तरफदारी करे तो मां रोए और मां की तरफदारी करे तो बीवी थाने चली जाए।
खाना पकाना और सेवा करना अब कोई मुद्दा नहीं रहा। मास्टर शेफ जैसे रियालिटी शो से लेकर अधिकांश शहरी परिवारों में अब पुरुष भी खाना पकाने में बराबर की रुचि लेते हैं। ऐसे भी घर हैं जहां छुट्टी के दिन किचन की जिम्मेदारी पुरुष संभालते हैं। ऐसे परिवार जहां स्त्री और पुरुष दोनों कामकाजी हों, बाहर खाने का चलन भी तेजी से बढ़ा है। कामकाजी महिलाओं के साथ जहां-जहां ऐसी समस्याएं आती हैं उसका हल उन्हें ही मिलकर निकालना होगा।
बेहतर होगा हम समाज की उन महिलाओं का सम्मान करें जिन्होंने पिता की मृत्यु के बाद परिवार की जिम्मेदारी उठा ली। अपने भाइयों और बहनों की शिक्षा के दायित्व का निर्वहन किया और उनका घर बसाने के लिए अपने सपनों की कुर्बानी दे दी। पुरुषों की तरह परिवार की जिम्मेदारी उठाने वाली ऐसी महिलाएं ही परिवर्तन की किरण हैं।
अवगुणों में पुरुषों की बराबरी करने की कोशिश करना उनके लिए घातक सिद्ध होता रहा है, होता रहेगा। कोई कितना भी चाहे नारी और पुरुष केवल एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं, विकल्प नहीं। प्रतिद्वंद्विता उन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगी।