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न पढ़ने की इच्छा है न पढ़ाने की, पीएचडी तक फर्जी, फिर गुणवत्ता कहां से : बीकेएस रे

Apr 7, 2019

Shiksha ka prayojanभिलाई। छत्तीसगढ़ के पूर्व अपर मुख्य सचिव, शिक्षाविद एवं लेखक बीकेएस रे ने आज कहा कि छात्रों को छोड़ भी दें तो शिक्षकों में भी पढ़ने पढ़ाने या स्वयं को अपडेट करने की इच्छा नहीं है। और तो और पीएचडी तक इधर उधर से बटोरकर बनाया गया पिज्जा है। ऐसी स्थिति में शिक्षा में गुणवत्ता की उम्मीद करना भी बेमानी है। श्री रे यहां आईसीएआई भवन में ‘शिक्षा का प्रयोजन – विमर्श एवं संवाद’ कार्यक्रम को मुख्य अतिथि की आसंदी से संबोधित कर रहे थे। Need of Educationकार्यक्रम का आयोजन श्री चतुर्भुज मेमोरियल फाउंडेशन एवं ग्रामोदय पत्रिका की तरफ स किया गया था। श्री रे ने कहा कि हम सारा दोष छात्र समुदाय पर मढ़ कर अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बच सकते। छात्रों को छोड़ भी दें तो शिक्षकों में भी स्वयं को अपडेट करने की इच्छा नहीं है। वे न तो अध्ययन करते हैं और न ही पढ़ाने की तैयारी करते हैं। वे विषय की गहराई में नहीं जाते। यही आदत छात्रों की हो जाती है।
कोचिंग इंस्टीट्यूट्स पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा कि सबकुछ फास्ट फूड जैसा हो गया है। चुने हुए कुछ प्रश्नों का जवाब देकर लोग डिग्री धारी हो जाते हैं। 80 फीसदी बच्चे गणित और अंग्रेजी में फेल हो जाते हैं। पीएचडी में भ्रष्टाचार की गहरी पैठ हो गई है। लोग इधर उधर से जुगाड़ लगाकर पिज्जा बना रहे हैं।
स्कूली शिक्षा पर तल्ख टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि यदि स्कूल कमजोर हुए तो कालेज भी कमजोर होंगे, इसे समझने की जरूरत है। ऐसे ऐसे लोग शिक्षा के क्षेत्र में आ गए हैं जिन्हें अभी खुद शिक्षा की जरूरत है।
उन्होंने यूके और चीन का उदाहरण देते हुए कहा कि उन्होंने शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान दिया। आज चीन विश्व की दूसरी बड़ी महाशक्ति है। अध्ययन में गहराई लाने के लिए उन्होंने लिखने की जरूरत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि लिखना कठिन कार्य है, इसके लिए काफी अध्ययन करना पड़ता है जबकि हर कोई पढ़ तो सकता ही है। इसलिए लोगों को अध्ययन कर कुछ न कुछ लिखने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने बताया कि उन्होंने 34 किताबें लिखी हैं जो आज भी चल रही हैं।
इससे पूर्व छत्तीसगढ़ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के महानिदेशक डॉ के सुब्रमणियम ने शिक्षा के गिरते स्तर पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि जब 2011-12 में उन्हें तकनीकी शिक्षा सचिव की जिम्मेदारी मिली तो उन्हें पता चला कि तब भी मध्यप्रदेश के 1992 के सिलेबस को पढ़ाया जा रहा है। लगभग प्रतिदिन बदलने वाले विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में यह एक भद्दा मजाक था।
उन्होंने बताया कि प्राध्यापकों के स्तर में सुधार के लिए उन्होंने केन्द्र सरकार की योजना टेक्विप के तहत प्रशिक्षण की व्यवस्था की किन्तु किसी भी सरकारी कालेज के प्राध्यापक ने उसमें कोई रुचि नहीं ली। बाद में निजी महाविद्यालयों के लिए द्वार खोले गए जिन्होंने इस योजना का लाभ लिया। उन्होंने कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में सबने अपना अपना कम्फर्ट जोन चुन लिया है और लोग अपने अपने कोकून में बैठकर रोजगार का आनंद ले रहे हैं।
शोध की बदतर स्थिति की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि आज अगर कोई सबसे कम पढ़ता है तो वह शिक्षक है। उसमें अपने ज्ञान को धार देने की कोई इच्छा नहीं है। सरकारें भी केवल ग्रॉस एनरोलमेन्ट रेशियो से खुश हैं। जहां पाए वहां कालेज खोल रहे हैं। छत्तीसगढ़ के सुकमा में अचानक एक कालेज खोला गया और उसका नाम रख दिया गया साइंस कालेज। प्राचार्य समेत वहां नियुक्त तीन प्राणियों में से किसी का भी विज्ञान से कोई लेना देना नहीं था।
शिक्षित लोगों पर व्यंग करते हुए उन्होंने एक किस्सा सुनाया। एक बार वे बस स्टैण्ड पर टिकट की कतार में खड़े थे। तभी एक शिक्षित लगने वाला युवक वहां पहुंचा और सबसे आगे जाकर टिकट खिड़की में हाथ डालने लगा। सामने खड़े देहातियों ने विरोध किया। तब उन्हें भी गुस्सा आ गया और उन्होंने उस लड़के को कॉलर से पकड़कर खींच लिया और पूछा कि क्या वह कालेज का विद्यार्थी है। क्या वह राजनीति शास्त्र का विद्यार्थी है। युवक हैरान था। उसने दोनों बातें स्वीकार करते हुए पूछा कि उन्हें कैसे पता। तब उन्होंने बताया कि जिस तरह की हरकत उसने की है वह केवल कालेज का बिगड़ैल विद्यार्थी ही कर सकता है। अनपढ़ तो बेचारे नियमानुसार अनुशासन के साथ कतार में खड़े हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसा नौजवान पैदा कर रही है।
कानून की शिक्षा में आए परिवर्तन पर उन्होंने कहा कि कभी नाइट कालेज में पढ़ाया जाने वाला कानून अब एक व्यवस्थित तरीके से पढ़ाया जा रहा है। 10 सेमेस्टर की पढ़ाई, किसी लॉ फर्म की अप्रेंटिसशिप के बाद जब वह डिग्री लेकर निकलता है तो वह शत प्रतिशत एम्प्लायेबल होता है। ऐसा प्रयोग सभी विषयों में किया जाना चाहिए।
उन्होंने जोर देकर कहा कि माता पिता बड़ी उम्मीदों के साथ अपने बच्चों को शिक्षण संस्थानों को सौंपते हैं। उन्हें ग्रूम करने की जिम्मेदारी महाविद्यालयों की बनती है। महाविद्यालयी छात्रों को शिक्षक नहीं मेन्टर की जरूरत होती है जो उसे मानव संसाधन में परिणत कर सके।
छत्तीसगढ़ आयुष विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति पद्मश्री डॉ अरुण टी दाबके ने कहा कि हम शिक्षा की गुणवत्ता की चर्चा करें इससे पहले कुछ बातों को ध्यान में रखना होगा। देश में छह माह से 5 साल तक की उम्र के 79 फीसदी बच्चे रक्ताल्पता के शिकार हैं। 28 फीसदी बच्चे कम वजन के साथ जन्म लेते हैं। दुनिया का हर तीसरा कुपोषित बच्चा भारत से है। 34 फीसदी माताओं का बीएमआई 18 से कम है। बच्चों का अपनी माता के गर्भ में भी पूर्ण विकास नहीं हो रहा है। ऐसे बच्चों का ग्रोथ कम होता है। दिमाग भी कमजोर होता है। शारीरिक ताकत कम होती है। पढ़ाई लिखाई में ये बच्चे कमजोर होते हैं। इसे लेकर हममें जागरूकता नहीं है। हम ट्यूशन लगाकर इस समस्या से मुक्ति पाने की कोशिश करते हैं जबकि इन्हें चिकित्सकीय मदद की जरूरत होती है। उन्होंने कहा कि हम सभी को बच्चों के विकास पर पूरा ध्यान देना होगा तभी बच्चे स्वस्थ होंगे और उम्मीदों पर खरा उतरेंगे।
हेमचंद यादव विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति डॉ शैलेन्द्र सराफ ने कहा कि विश्वविद्यालय मात्र समाज की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास कर रहे हैं। धीरे धीरे पूरी शिक्षा व्यवस्था उसी ओर मुड़ गई है। आज समाज चाहता है कि उसका बच्चा एंट्रेस एग्जाम क्रैक करे। पढ़ाई पूरी होने के बाद आकर्षक पैकेज हासिल करे। पहले जहां शिक्षा का तात्पर्य ज्ञान अर्जन से था वहीं आज पूरा फोकस इसके बाइप्रॉडक्ट नौकरी पर है।
उन्होंने फार्मेसी के क्षेत्र में भारत की प्रगति की विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि 1952 में जहां भारत में एक गोली भी नहीं बनती थी वहीं आज भारत दवाओं का विश्व में दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। हमने आयुर्वेद को आगे बढ़ाने में बड़ी सफलताएं हासिल की हैं।
उन्होंने कहा कि युवाओं को जॉब रेडी करने के लिए हमें विकास की रफ्तार के साथ कदमताल करना होगा। आज दुनिया आर्टिफिशल इंटेलीजेंस पर काम कर रही है। डॉक्टर वाटसन की नर्स मॉली का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि वह हर वह काम कर सकती है जो कोई हाड़ मांस की नर्स करती है। आज आपके हर सवाल का जवाब चुटकियों में देने के लिए इंटरनेट है।
कैपेसिटी बिल्डिंग पर ध्यान केन्द्रित करने की सलाह एजुकेटर्स को देते हुए उन्होंने बताया कि गुजरात के युवा बड़ी संख्या में विदेशों की फार्मा कंपनियों में काम कर रहे हैं। इसका कारण उनका ज्ञान नहीं बल्कि ज्ञान और स्किल अर्जित करने की उनकी क्षमता है। अपनी डिग्री को मूल्यवान बनाए रखने के लिए आपको निरंतर स्वयं को अपडेट करते रहना होगा अन्यथा आप फेज आउट हो जाएंगे।
चौथी औद्योगिक क्रांति का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आज चर्चा अनलर्निंग और री-लर्निंग की हो रही है। इसका आशय यह है कि जो कुछ आप जानते हैं उसे छोड़कर आप नया ज्ञान अर्जित करें। उन्होंने आयुर्वेद के क्षेत्र में भारत की प्रगति की चर्चा करते हुए कहा कि वहां क्वालिटी बाई डिजाइन को सफलता मिली। इस पद्धति का उपयोग शिक्षा और शोध को अन्य क्षेत्रों में भी किया जा सकता है।
आरंभ में अतिथियों का परिचय प्रदान करते हुए संयोजक डॉ डीएन शर्मा ने विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला। कार्यक्रम को चतुर्भुज मेमोरियल फाउंडेशन के अध्यक्ष अरुण श्रीवास्तव, ग्रामोदय के सम्पादक विनोद मिश्र ने भी संबोधित किया। इस अवसर पर शिक्षाविद डॉ हरिनारायण दुबे, डॉ रक्षा सिंह, डॉ रॉयमोन, डॉ महेश चन्द्र शर्मा, डॉ संध्या मदन मोहन, डॉ जे दुर्गा प्रसाद राव, राष्ट्रीय सुरक्षा कार्यकर्ता वीएन पाण्डेय, प्रभुनाथ मिश्रा, संस्कृति एवं साहित्यकर्मी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन डॉ अनिता सावंत ने किया।

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