भिलाई। भण्डारा संस्कृति अपनी 21वीं सदी के स्वरूप में एक सिरदर्द बन गयी है। रिसाली के एक धार्मिक आयोजन के भण्डारे से निकले कचरे ने लगभग एक दर्जन मवेशियों की जान ले ली। ऊपर दी गई छवि इसी वर्ष के शारदीय नवरात्रि के अवसर की है। हाऊसिंग बोर्ड औद्योगिक क्षेत्र के इस खाली प्लाट को निगम ने डम्पिंग ग्राउण्ड बनाया है। प्लास्टिक, पालीथीन, थर्मोकॉल की खिचड़ी लगी प्लेटें और थैलियां गाय, कुत्ता और सुअर को समान रूप से आकर्षित कर रही हैं।भण्डारा सहभोज की संस्कृति को विकसित करने के लिए किया जाने वाला आयोजन रहा है। यहां सभी लोग समान रूप से एक जैसा भोजन कर एकता का परिचय देते रहे हैं। पर 21वीं सदी में ऐसा नहीं है। निर्धारित चंदा देने वाले का भोग स्टील के टिफिन में पैक होकर उसके घर चला जाता है। कुछ लोग घर से प्लेट चम्मच लेकर आते हैं। ऐसे लोग अनजाने में पर्यावरण एवं मवेशी हितैषी बन जाते हैं। शेष लोगों के लिए कहीं कहीं पत्तल तो अधिकांश जगहों पर थर्माकोल के पत्तलों की व्यवस्था होती है। राह चलते लोगों को अचानक ही मुफ्त की खिचड़ी खींच लेती है। आनन-फानन में वे पालीथीन बैग का इंतजाम करते हैं और उसी में भोग लेकर घर चले जाते हैं।
लोग खाते हैं और पण्डाल के आसपास सिंगल यूज प्लेटों की ढेर लगा देते हैं। सफाई कर्मी उसे वहां से उठाकर किसी खाली प्लाट पर पटक आते हैं। रिसाली के मामले में आपत्ति लगाई गई कि आयोजन के लिए अनुमति नहीं ली गई थी। ली भी जाती तो क्या होता? क्या यहां भी वैवाहिक पार्टी जैसा इंतजाम कर दिया जाता। लोग मेलामाइन, चीनी मिट्टी या स्टील की थाली में खाते? लाखों रुपए पंडाल, साउंड सिस्टम और डेकोरेशन में खर्च करने वाले आयोजक क्या थालियों का किराया भरते?
कुछ कठोर नियम बनाने जरूरी हैं। भण्डारा का भोग केवल प्राकृत्तिक पत्तलों या किराए के बर्तनों में ही परोसा जाए। पालीथीन में भोग देना बंद कर दिया जाए। यदि भोग बटोरना ही है तो घर से बर्तन लेकर आएं। भण्डारा केवल पंगत में हो। भोग सेवा में दरिद्र नारायण की सेवा सबसे पहले हो। बचने पर ही अन्यों को दिया जाए।
भण्डारे की चूकों को लेकर राजनीति न की जाए। चुन-चुन कर लोगों को निशाना न बनाया जाए। गौशाला-गौठानों में कैद गायों की भूख से मौत पर चुप्पी और पॉलीथीन खाकर मरने वाली गाय के मामले में एफआईआर दर्ज कराने वाली ‘काणी’ संस्कृति से परहेज किया जाए।