भिलाई। श्रीकृष्ण और श्रीराम की लीला तो सभी जानते हैं पर बहुत कम लोगों को यह ज्ञात है कि पृथ्वीलोक पर अपना प्रयोजन सिद्ध करने के बाद दोनों की स्वधाम वापसी किस तरह हुई। श्रीकृष्ण ने जहां भील के तीर को निमित्त बनाया वहीं श्रीराम ने सरयु में समाधि ले ली। उक्त बातें केपीएस कुटेलाभाटा के प्रांगण में आयोजित सात दिवसीय श्रीमदभागवत के अंतिम दिन केपीएस ग्रुप के चेयरमैन पं. मदन मोहन त्रिपाठी ने विभिन्न प्रसंगों की व्याख्या करते हुए कहीं। विशाल जनसमुदाय को संबोधित करते हुए पं. त्रिपाठी ने बताया कि जब श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों का जन्म पृथ्वीलोक पर पाप के भार को कम करने के लिए हुआ था। कार्य सिद्ध होने के बाद दोनों की ही स्वधाम वापसी तय थी। प्रभु श्रीराम के स्वधम गमन की कथा सुनाते हुए उन्होंने बताया कि एक दिन श्रीराम और लक्ष्मण बैठे वार्तालाप कर रहे थे। तभी एक संत वहां पहुंचे और श्रीराम से एकांत चर्चा की इच्छा जताई। वे कोई और नहीं बल्कि कालदेव थे जो प्रभु श्रीराम को यह बताने आये थे कि भूलोक में उनकी लीला समाप्त हो चुकी है और अब उन्हें स्वधाम लौटना होगा। उन्होंने शर्त रखी कि उनकी चर्चा में कोई विघ्न न हो। श्रीराम ने द्वारपालों को हटाकर लक्ष्मण को वहां खड़ा करने का निर्देश दिया। साथ ही यह आदेश भी दिया कि यदि किसी ने भी चर्चा के बीच में खलल डाली तो उसे मृत्युदण्ड का भागी बनना पड़ेगा।
लक्ष्मण द्वार पर खड़े हो गए और श्रीराम संत से एकांत कक्ष में चर्चा करने लगे। तभी द्वार पर ऋषि दुर्वासा आ गए। उनका क्रोध सभी जानते थे। उन्होंने श्रीराम से मिलने की इच्छा व्यक्त की। लक्ष्मण ने उन्हें बताया कि श्रीराम अभी एकांत चर्चा में व्यस्त हैं। जैसे ही संत बाहर आएंगे वे श्रीराम से मिल सकते हैं। इसपर दुर्वासा कुपित हो गए। उन्होंने इसे लक्ष्मण की धृष्टता माना और कहा कि यदि उन्हें तुरंत नहीं मिलने दिया गया तो वे श्रीराम का श्राप दे देंगे। लक्ष्मण धर्मसंकट में पड़ गए। उन्हें पता था कि यदि दुर्वासा को रोका तो श्रीराम शापित हो जाएंगे। यदि चर्चा में विघ्न डाला तो मृत्युदण्ड का भागी बनना होगा। उन्हें स्वयं दण्ड का भादीगार बनना श्रेयस्कर लगा। वे प्रभु श्रीराम के पास पहुंचे और दुर्वासा के आगमन का संदेश दिया। श्रीराम धर्मसंकट में पड़ गए। लक्ष्मण उन्हें अपने प्राणों से अधिक प्रिय थे। पर रघुकुल रीत के अनुसार उन्हें वचन भी निभाना था। उन्होंने लक्ष्मण को देश निकाला का आदेश दे दिया। उन दिनों यह मृत्युदण्ड के समान था। जिस तरह राम बिना लक्ष्मण अधूरे थे उसी तरह लक्ष्मण बिन राम भी अधूरे थे। दूसरे दिन सुबह श्रीराम सरयु नदी के किनारे पहुंचे और जलसमाधि ले ली।
कुछ इसी तरह श्रीकृष्ण ने भी यदुवंश का नाश हो जाने के बाद स्वधाम लौटने की तैयारी कर ली थी। महाभारत के युद्ध के बाद वे गांधारी से मिलने पहुंचे। क्षुब्ध गांधारी ने उन्हें श्राप दिया कि जिस तरह आपस में लड़कर कौरवों का नाश हो गया उसी तरह श्रीकृष्ण के वंश का भी नाश हो जाएगा। यदुवंशियों की शरारतें बढ़ती जा रही थीं। एक दिन उन्होंने ऋषि साम्ब के साथ छल किया। पेट पर कपड़ा बांधकर वे साम्ब के पास पहुंचे और पूछा कि बताओ बेटा होगा या बेटी। साम्ब ताड़ गए और कहा कि न बेटा होगा न बेटी। मूसल होगा। यदु वहां से भाग गए। जब उन्होंने पेट पर बंधा कपड़ा खोला तो उसमें से मूसल निकला। वे मूसल को लेकर राजदरबार पहुंचे और पूरा वृत्तांत कह सुनाया। राजा उग्रसेन के आदेश पर मूसल को चूरा-चूरा कर समुद्र में फेंक दिया गया। यह चूरा बहकर समुद्र के किनारे आ लगा और वहां लंबे-लंबे पौधों के रूप में उग आया। एक टुकड़ा जाल में फंसकर भूमि पर लौट आया।
इसके बाद सभी यदुवंशी एक पर्व मनाने के लिए प्रभास क्षेत्र में एकत्र हुए जहां नशे में वे आपस में लड़ने लगे। मूसल के चूर्ण से उगे पौधों का उन्होंने हथियार की तरह उपयोग किया और सब के सब मारे गए। उधर बलराम ने जलसमाधि ले ली। श्रीकृष्ण एक टीले पर जाकर ध्यानमग्न हो गए। उधर से गुजर रहे जरा नामक शिकारी को आलता से रंगा श्रीकृष्ण का पैर दिखाई दिया। उसने उसे कोई जीव समझकर बाण चला दिया। इस बाण की नोक पर समुद्र से निकला मूसल का वह टुकड़ा लगा था। श्रीकृष्ण ने इसे स्वधाम लौटने का बहाना बना लिया।
पं. त्रिपाठी ने कहा कि जन्मांध होने के कारण धृष्टराष्ट्र जहां कुछ देख नहीं पाते थे वहीं गांधारी ने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। इसके कारण बच्चे उत्पाती हो गए और किसी ने भी उन्हें रोकने या समझाने की कोशिश नहीं की। यदि उन्होंने आंखों पर पट्टी नहीं बांधी होती तो कौरव और पाण्डवों के बीच इतनी कटुता नहीं आती और महाभारत भी नहीं होता।
अंत में चार कुण्डों पर हवन प्रारंभ हुआ और सप्ताह-व्यापी श्रीमदभागवत की पारणो हो गई।