दुर्ग। कभी दुर्ग जिले का हिस्सा रहे बालोद जिले के करकाभाट में 5000 साल से भी पुरानी कब्रों का इतिहास दफ्न हैं। कहते हैं-कभी यहां सिसकियां सुनी जाती थीं। विशेष दिनों में इन कब्रों के आसपास अलौकिक नीली आभा दिखलाई पड़ती थी। पर अब यह सब नहीं होता। बालोद शहर दुर्ग से लगभग 60 किमी दूर है। बालोद धमतरी मार्ग के दोनों तरफ ये अवशेष बिखरे हुए हैं।
वह पाषाणकाल था। पत्थर के औजार, पत्थर के ही हथियार। खेती किसानी अभी शुरू ही हुई थी। जगह-जगह बसाहटें उगने लगी थीं। सभ्यता विकसित हो रही थी। जीवन मृत्यु के संस्कार तय हो रहे थे। लोग अपने मृत परिजनों की समाधि को याद रखना चाहते थे। पथरीली जमीन पर बड़ी-बड़ी चट्टानों को खड़ा कर मृतक स्मारक स्तंभ बनाया जाता था। ऐसा लगता है कि समाज का वर्गीकरण हो चुका था। समाज में उच्च पद प्राप्त लोगों को ही खास कब्रें नसीब होती थीं। कुछ कब्रें यहां जोड़ों में मिली हैं जो संभवतः पति-पत्नी के हैं। कुछ बड़ी सामूहिक कब्रें भी मिली हैं।
कालांतर में इसमें भिन्नता आई। महत्व के हिसाब से अलग-अलग तरह की चट्टानों का, अलग अलग कोणों पर उपयोग प्रारंभ हुआ। यह प्रक्रिया लगभग एक ही समय पर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में प्रारंभ हुई। हजारों मील के फासले के बाद भी इनमें गजब की समानता थी।
छत्तीसगढ़ का करकाभाट क्षेत्र उन दिनों आबाद था। बालोद धमतरी मार्ग पर शिवनाथ और महानदी के बीच के लगभग 10 किलोमीटर क्षेत्र में ये अवशेष फैले हुए हैं। वर्ष 1999 के सर्वे में ग्राम करकाभाट, करहीभदर, सोरर, चिरचारी, मुजगहन, कन्नेवाड़ा, बरही, बरपारा, कपरमेटा, धोबनपुरी, धनोरा, भरदा आदि गांव में लगभग 5 हजार प्राचीन कब्रों को चिन्हांकित किया गया था। इनमें से अनेक कब्रें बीते दो दशकों में ध्वस्त हो चुकी हैं।
पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर अरुण कुमार शर्मा के मुताबिक बस्तर, नागालैंड, मणिपुर तथा अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में पाए गए ऐसी कब्रों में से ग्राम करकाभाट का कब्र समूह सबसे बड़ा है।
यहां मुख्यतः तीन तरह के स्मारक पत्थर (मेनहीर) मिलते हैं। नुकीले (कोनिकल), मछली की पूंछ जैसे विभाजित शीर्ष वाले (फिशटेल) और एक तरफ से नुकीले सिरे वाले। पत्थरों की खूबी यह है कि इन्हें एक ही तरफ से तराशा गया है। तराशा हुआ भाग उत्तर की ओर है। इसके अलावा कैर्न, वृत, डोलमेन आदि भी हैं। इनके आसपास पिरामिड की शक्ल में सजाए गए पत्थरों के स्तूप मिलते हैं। खुदाई में यहां से भाला और तीर के सिरों पर लगने वाले नुकीले अंश तथा कृषि के औजार मिले हैं। दुःखद यह है कि यहां रहने वाले बहुत कम लोगों को इस स्थल की जानकारी है। इससे कम लोगों ने कभी इसे देखा है। सड़क किनारे संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग का बोर्ड भी लगा हुआ है। जिसमें महापाषाणीय स्मारक स्थल की संस्कृति के बारे में जानकारी दी गई है।