14 नवम्बर को बालदिवस के साथ ही डायबिटीज डे भी है. दोनों के बीच गहरा संबंध है. भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 2.5 लाख बच्चे टाइप-1 डायबिटीज के शिकार हैं. पर इससे भी कहीं बड़ी संख्या टाइप-2 डायबिटीज वाले बच्चों की है. देश में डायबिटीज के ज्ञात रोगियों की संख्या 7.7 करोड़ है जो 2045 तक बढ़कर 13.4 करोड़ हो सकती है. बच्चों में मोटापा और डियबिटीज के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. एम्स के विशेषज्ञों की मानें तो ज्यादातर खाते-पीते परिवारों के बच्चे ही इसका शिकार हो रहे हैं.
वह बचपन कहीं खो गया है जो 60 या 70 के दशक तक जन्म लेने वालों ने जी थी. अब बचपन खुद एक अभिशाप है. बच्चा चलना सीखे, इससे पहले ही उसकी पकड़-धकड़ करने के लिए नर्सरी वाले फेरे लगाना शुरू कर देते हैं. इधर माता पिता भी प्रेशर में है. साल भर का पिल्ला, ‘कम’, ‘सिट’, ‘गो’, ‘नो’ जैसे अंग्रेजी के शब्दों को समझने लगता है, फिर इंसान का बच्चा कैसे पीछे रह सकता है? बच्चे को पोएम रटाया जाता है ताकि जब घर में कोई आए तो बच्चा उन्हें “ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार” सुना सके. नन्ही सी जान पीठ पर बस्ता लटकाए पहले नर्सरी जाता है और फिर ट्यूशन. जाने अनजाने उसपर प्रतिस्पर्धा का प्रेशर डाल दिया जाता है. वह मिट्टी में लोटता नहीं, मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलता नहीं. इतना छोटा बच्चा भी बोर होता है. जब-जब बोर होता है तो पेरेन्ट्स उसे स्मार्ट फोन थमा देते हैं. वह खाने से मना करता है तो मैगी का बाउल हाथ में देकर टीवी के सामने बैठा देते हैं. कार्टून देखे बिना उसके गले से निवाला नहीं उतरता. कार्टून कैरेक्टर्स ही उसके दोस्त हैं. टीशर्ट पर, कापी-किताबों पर, बेडरूम में – हर जगह कार्टून कैरेटर्स ही नजर आते हैं. भारी विडम्बना है – बचपन में जब मां ने ‘पोगो पैन्ट’ पहनाकर छोड़ दिया था तो लगा था कि आजादी बस अगले मोड़ पर है. पर यह एक छलावा था. उसके जीवन का फारमेट तो तभी तय हो गया था जब वह पैदा भी नहीं हुआ था. इधर, अस्पतालों में ऐसे किशोरों की भीड़ बढ़ रही है जिन्हें टाइप-2 डायबिटीज है. सेन्टर फॉर डिजीज कंट्रोल सीडीसी द्वारा जुटाए गए आंकड़ों की मानें तो 2001 से 2017 के बीच 10 से 19 साल के बच्चों में टाइप-2 डायबिटीज के रोगियों की संख्या दोगुनी हो गई है. खराब लाइफ स्टाइल और फास्ट फूड के बढ़ते चलन को इसके लिए जिम्मेदार माना जा रहा है. टाइप-1 डायबिटीज के मामलों में जहां केवल 45% का इजाफा हुआ है वहीं टाइप-2 डायबिटीज के मामलों में 95% से अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है. ये दोनों ही आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं और इसके रिवर्स गियर में जाने के चांस बहुत कम हैं. इसकी एक वजह और है. पहले जहां केवल फिट लोग ही जीते और बच्चे पैदा करते थे, वहीं अब मेडिकल की सहायता से ऐसे लोग भी जी रहे हैं जिनका टाइम पूरा हो चुका है. ऐसे लोग भी मां बाप बन रहे हैं जिनसे प्रकृति ने बच्चा पैदा करने का हक छीना था. इसलिए जीन्स की क्वालिटी खराब हो रही है. समस्या ग्रस्त लोगों की आबादी बढ़ रही है. फिटनेस का मतलब केवल बाइसेप और सिक्स पैक रह गया है. लोग जिम में जा-जाकर दम तोड़ रहे हैं. आत्महत्या का यह फार्मूला अभी नया-नया बाजार में आया है.
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