Son insists on mothers role in marriage

विधवा होने मात्र से माता का दर्जा तो नहीं बदल जाता

मानव विकास के आरंभ में जब लोग झुण्डों में रहने लगे तो उन्होंने अपने लिए कुछ नियम बनाए. यही नियम आगे चलकर मान्यताओं और परम्पराओं में तब्दील हो गए. इनमें से कुछ जहां लोगों को जोड़ते थे, वहीं कुछ परम्पराएं बंदिशें लगाती थीं. समय के साथ इनमें से कई परम्पराएं विलुप्त हो गईं. कुछ परम्पराएं अप्रासंगिक हो गईं. समाज सुधारकों ने ऐसी परम्पराओं पर चोट की और उसके खिलाफ जनमत तैयार किया. पर आधुनिक समाज कुछ पीड़ादायक परम्पराओं को आज भी ढो रहा है. इन्हीं में से एक है विधवा से उसके सामाजिक अधिकार छीनना. विधवा से उसके रंगीन परिधान, आभूषण, शृंगार यहां तक कि केश विन्यास का अधिकार भी छीन लिया गया. उसे पति की मृत्यु के लिए जिम्मेदार ठहराया गया. सम्पत्ति के अधिकार से वंचित करने के लिए उसके खिलाफ षडयंत्र किये जाते रहे. किसी को पति के साथ सती कर दिया गया तो किसी को निर्वासित कर काशी-मथुरा-वृंदावन की गलियों तक पहुंचा दिया गया. हालांकि, ऐसी घटनाएं अब इतिहास में दफ्न हो चुकी हैं पर विधवाओं को काला-जादू और टोना-टोटका के नाम पर प्रताड़ित किये जाने की खबरें अब भी आती रहती हैं. कुछ बेहूदा परम्पराएं ऐसी भी हैं जिसे आधुनिक समाज अब तक ओढ़े हुए है. इन्हीं में से एक है शुभ अवसरों से विधवाओं को दूर रखना. धमतरी जिले के भखारा तहसील के ग्राम कोर्रा निवासी प्रह्लाद साहू ने अपनी विधावा माता के हाथों से विवाह का मौर प्राप्त कर एक और दकियानूसी परम्परा को तोड़ दिया है. इसमें समाज ने भी उसका साथ दिया. इससे पहले बेटियों ने अपने माता-पिता का अंतिम संस्कार कर एक कुरीति को तोड़ा था. यह कुरीती अनेक सामाजिक बुराइयों की जड़ थी. बेटे के हाथों मुखाग्नि कराकर स्वर्ग जाने की चाह ने बेटियों को दोयम दर्जे की संतान बना दिया था. वंश बेल को आगे बढ़ाने की चाह भी इसका एक प्रमुख कारण थी. बेटे की चाह में लोग कई-कई बेटियां पैदा कर लेते थे. आधुनिक उपकरणों के आने के बाद बेटियों को कोख में ही मारने का सिलसिला चल पड़ा था. इससे माता का स्वास्थ्य तो बिगड़ता ही था, कभी कभी उसकी मौत भी हो जाती थी. कुछ राज्यों में बेटियों की कमी हो गई तो दूसरे राज्यों से बच्चियों का अपहरण करने का नया उद्योग शुरू हो गया. दुल्हन की खरीद-फरोख्त शुरू हो गई. अब इसे बदलने का वक्त आ गया है. पिछले एक दशक में कुछ नए चलन सामने आए हैं. बेटियां अब शादी के बाद भी अपने पिता का ही सरनेम लगाती हैं, माता-पिता का अंतिम संस्कार भी कर रही हैं. बड़ी संख्या में बेटियां परिवार का बोझ उठा रही हैं. पति के जाने के बाद सिंगल मदर की भूमिका भी बखूबी निभा रही हैं. ऐसे में उन सभी रस्मों पर उसका अधिकार तो बनता ही है जिसे अब तक पुरुषों के लिए सहेज कर रखा गया था.

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