“छोटा ख्याल” में स्वयंसिद्धा सोनाली कह गई बड़ी बात
बरसों बाद आज फिर पेट के बल लेटकर किताब पढ़ने का सौभाग्य मिला है. यह मेरी बचपन की आदत है. गर्मियों की छुट्टी में इसी तरह पेट के बल लेटकर न जाने कितनी किताबें पढ़ चुका हूँ. अंग्रेजी, हिन्दी, बांग्ला की सैकड़ों किताबें इसी तरह उदरस्थ करता रहा हूँ. जब “छोटा ख्याल” हाथ में आया तो पहले तो यूं ही बैठे-बैठे उसे पढ़ना शुरू किया. अभी 10-12 पन्ने ही पढ़े होंगे की अधलेटा हो गया और कुछ और पन्नों के बाद पेट के बल लेट गया. 121 पृष्ठों की किताब पूरी करने के बाद आंखें बंद कर लीं और एक अल्हड़ नदी के पहाड़ों से निकलकर अठखेलियां करते समतल में बहने तक की यात्रा का रसास्वादन करने लगा.
“छोटा ख्याल” डॉ सोनाली चक्रवर्ती की पहली पुस्तक है. यह गागर में सागर समेटने की एक छोटी सी कोशिश है. मनुष्य का जीवन भी एक नदी की भांति है. पहाड़ों के गर्भ से निकलकर पहले वह ठिठकती है. फिर नीचे समतल की ओर दौड़ पड़ती है. चट्टानों पर छिटकती, चढ़ती उतरती, दरारों से बल खाती वह तेजी से मैदानों की ओर बढ़ती है. नदी की कोख से जन्म लेते हैं खेत-खलिहान, मानव बस्तियां और सभ्यताएं. जंगलों और वन्य प्राणियों की प्यास बुझाती वह आगे बढ़ती जाती है और फिर समुद्र में विलय से पूर्व मंथर गति से बहने लगती है. इस पूरी यात्रा में ढेरों संस्मरण होते हैं जो नदी कह नहीं पाती. उसे सिर्फ महसूस करना होता है. सोनाली की पुस्तक में इसका अहसास बार-बार होता है.
बेटियां पिता के ज्यादा करीब होती हैं. पिता के साथ होने वाली “कॉथा काटा-काटी”, “आड़ी” का उन्होंने खूबसूरती से उल्लेख किया है. कॉथा काटा-काटी कोई झगड़ा नहीं है. यह बहस भी नहीं है. आड़ी को हम हिन्दी में कट्टी भी कहते हैं. यह होती ही सुलह के लिए है. बहुत कम शब्दों में सोनाली इस प्रभाव को उत्पन्न करने में सफल हुई हैं. इसके लिए साधुवाद. बेटी की जिद पूरी करने के लिए अस्वस्थ पिता का घनघोर बारिश में निकल पड़ना और उसे स्टेशन तक पहुंचाने का पुस्तक में सुन्दर वर्णन है. इन पंक्तियों में बेटी यह बताना नहीं भूलती की किस तरह उसके पिता की बुलंद आवाज ने बारिश के बीच प्लेटफार्म क्रमांक एक से प्लेटफार्म कर्मांक तीन तक अपनी आवाज पहुंचाई. किस तरह वे बेटी को उसके पति से मिलाकर एक विजेता की तरह मुस्कुराए. बेटी के लिए पिता ही जीवन का पहला हीरो होता है जिसमें असंभव को भी संभव बनाने की क्षमता होती है.
पुस्तक के एक अन्य अंश में वैधव्य का वर्णन किया गया है. पुरानी बेतुकी परम्पराओं के खिलाफ एक बेटी के उठ खड़ा होने और अपनी मां का ढाल बन जाने का सुन्दर वर्णन है. पुस्तक में बीमार पड़ने, उत्कंठा के साथ अपने संभावित अंतिम क्षणों को पूरी तरह जीने और अपनी स्मृति छोड़ जाने जैसी भावनाओं को भी अभिव्यक्ति दी गई है. पुस्तक में बालिका मिठू के सोनाली बनने और फिर डॉ सोनाली चक्रवर्ती से स्वयंसिद्धा बनने की रोचक दास्तां है. इसमें कभी वह दीदी बनकर बस्ती के बच्चों को जीवन की राह दिखाती नजर आती हैं तो कभी एक मां बनकर एक परिवार का सहारा बनती दिखाई देती है. पुस्तक का एक-एक पन्ना जीवन को भरपूर जीने, उसे अपने लिए और अपने आसपास के लोगों के लिए उपयोगी बनाने की एक प्रेरक कथा भी है.
पुस्तक में ऐसी छोटी-छोटी अनेक घटनाओं का न केवल सुन्दर वर्णन है बल्कि वह पाठक को अपने बचपन की स्मृति में खो जाने को भी विवश करती है. पाठक इन घटनाओं से सहज ही जुड़ जाता है और अपने बचपन की स्मृतियों को एक नए आलोक में टटोलने लगता है. बहुत कम शब्दों में, एक पत्रकार की रवानगी के साथ लिखी गई ये कहानियां धारावाहिक उपन्यास का प्रभाव पैदा करती हैं. ऐसा लगता है जैसे हम कोणार्क के सूर्य मंदिर की परिक्रमा कर रहे हों और मनुष्य जीवन की उत्पत्ति से लेकर उसे कीर्तिपताका फहराते हुए आगे बढ़ता देख रहे हों.
पुस्तक का विमोचन विश्वविख्यात पंडवानी गायिका पद्मविभूषण डॉ तीजन बाई ने सोनाली के जन्मदिवस पर किया. पुस्तक का प्रकाशन हमरूह पब्लिकेशन हाउस ने किया है. आवरण चित्र कुहू अग्रवाल का है. पुस्तक ऑनलाइन उपलब्ध है.