हल्बा शादियों में नहीं बजेगा डीजे, नहीं होगी महाराजा सोफा
जिन्हें अब पिछड़ा और अविकसित समझते थे, जिन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए तमाम कोशिशें की जाती थीं, वे हमसे कहीं ज्यादा जागरूक और सामाजिक साबित हुए. अखिल भारतीय हल्बा-हल्बी आदिवासी समाज छत्तीसगढ़ की केन्द्रीय महासभा ने शादियों में फिजूलखर्ची पर रोक लगाने का फैसला किया है. महासभा की बैठक को संबोधित करते हुए अध्यक्ष डॉ देवेन्द्र माहला ने कहा कि विवाह एवं मृत्यु कार्यक्रम में दिखावटीपना बंद होना चाहिए. केवल रसूख दिखाने के लिए इसमें की जाने वाली फिजूलखर्ची पर विराम लगनी चाहिए. वैसे दिखावे के लिए फिजूलखर्ची आम हिन्दुस्तानी का शगल बनता जा रहा है. चंद दिनों के संस्कार पर लाखों रुपए फूंकने वाले सभी समाजों में मिल जाएंगे. इनकी देखा-देखी करते हुए आदिवासी समाज के लोग भी दिखावे पर जमा पूंजी फूंकने लगे थे. महासभा ने इस पर रोक लगाने की बात कही है. उन्होंने कहा कि परिवर्तन प्रकृति का नियम. हल्बा समाज प्रकृति पूजक है. समाज को अपने रहन-सहन और तौर-तरीकों में अनुकूल परिवर्तन करने होंगे. जनसंख्या के हिसाब से समाज काफी बड़ा है. बड़े समाजों में होने वाले परिवर्तन से कम संख्या वाले समाजों को भी प्रेरणा मिलेगी. समाज के प्रत्येक रीति रिवाज में अनावश्यक खर्च काफी बढ़ गया है. इसपर अंकुश लगाने की जरूरत है. मृत्यु भोज में अब केवल सात्विक सादा भोजन शामिल होगा. इसी तरह शादी ब्याह के कार्यक्रमों में विशाल बारात, डीजे, महाराजा सोफा और आलीशान मंचों पर फिजूलखर्ची को बंद करना होगा. इस पैसे का उपयोग पौधरोपण, करियर मार्गदर्शन, रक्तदान, स्वास्थ्य शिविर एवं कौशल प्रशिक्षण शिविर में किया जाना चाहिए. दरअसल, यही एक जीवंत समाज की पहचान है. वह वक्त के साथ कदमताल करता है. अप्रासंगिक हो चुकी परम्पराओं को तोड़ कर वह आगे बढ़ता है, समयोचित सकारात्मक कार्यक्रमों की तरफ झुकता है. फिजूलखर्ची और दिखावा कुछ परिवारों पर बहुत भारी पड़ता है. तीन-चार दिन में वैवाहिक समारोहों में लाखों रुपए केवल धूमधाम और दिखावे के नाम पर फूंक दिये जाते हैं. इधर अस्पताल में कोई भर्ती हो जाए तो परिवार एक-एक रुपये के लिए तरस जाता है. शादियों पर लगातार बढ़ता खर्च ही दरअसल बेटियों के लिए अभिशाप बना हुआ है. ऐसे असंख्य परिवार आज भी देश में मिल जाएंगे जो बेटियों की पढ़ाई पर केवल इसलिए खर्च करने से बचते हैं कि उसकी शादी पर तो खर्च होगा ही. गांव के लोग जमीनें बेचकर बेटियों की शादी करवाते हैं. यह एक गलत परम्परा है जिसे महसूस तो सभी करते हैं पर कोई भी व्यक्तिगत स्तर पर इसे रोकने का साहस नहीं जुटा पाता. यही कारण है कि समाज स्वयं आगे आया है. समाज ने उनकी दुविधा दूर कर दी है जो इस फिजूलखर्ची से बचना चाहते थे. आदिवासी समाज ने पहले भी कई बार देश को सादगी और स्वाभिमान का पाठ पढ़ाया है. स्वतंत्रता संग्राम को भी देखें तो पाएंगे कि सबसे पहले अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करने वाले आदिवासी ही थे. शेष समाज को भी हल्बा-हल्बी समाज के इस निर्णय का अनुसरण करना चाहिए.