गुस्ताखी माफ : महिलाओं ने मुफ्त में देखी “द केरला स्टोरी”
इन महिलाओं ने पहले कभी मल्टीप्लेक्स में फिल्म नहीं देखी थी. इन्हें यह मौका दिया “द केरला स्टोरी” ने. इस फिल्म से प्रभावित एक पूर्व मंत्री ने महिलाओं को फ्री में फिल्म दिखाने का संकल्प ले लिया. मंत्रीजी ने मल्टीप्लेक्स के तीन स्क्रीन के आठ शो बुक किये. आखिर है क्या इस फिल्म में? इस फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह भोली-भाली लड़कियां प्रेम में फंस जाती हैं, उनका धर्मांतरण कर दिया जाता है. इतना ही नहीं, इन लड़कियों का बेजा इस्तेमाल आतंकवाद में भी किया जाता है. अभी कुछ ही दिन पहले इस फिल्म के निर्माता ने ऐसी 26 धर्मांतरित लड़कियों को मुम्बई के एक पत्रकार सम्मेलन में प्रस्तुत किया जिन्होंने तमाम धमकियों को नजरअंदाज कर अपनी कहानी दुनिया के साथ साझा करने का साहस किया. किसी फिल्म के सहारे इतना बड़ा सामाजिक आंदोलन खड़ा करना, निश्चित तौर पर एक सराहनीय प्रयास है. पत्रकार सम्मेलन में फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो सेन ने कहा कि यह कोई हिन्दू मुसलमान का मामला नहीं है. यह मामला है उन कच्ची उम्र की लड़कियों का, जो आसानी से प्रेमजाल में फंस जाती हैं. घर बस गया तो ठीक वरना इनका भावी जीवन नर्क जैसा हो जाता है. उन्होंने यह भी कहा कि सनशाइन पिक्चर्स, केरला स्टोरी की टीम और वे स्वयं मिलकर एक आश्रम खोलने जा रहे हैं जिसमें ऐसी लड़कियों का पुनर्वास किया जाएगा. इसके लिए उन्होंने 51 लाख रुपए की पहली किस्त की भी घोषणा की. इस आश्रम का नाम होगा “प्रोटेक्ट द डॉटर्स” (बेटियों की रक्षा करें). इस फिल्म ने वह कर दिखाया है जो तमाम सामाजिक संगठन, मीडिया और राजनेता नहीं कर पाए. “केरला स्टोरी” सिर्फ ध्यान आकर्षित करती है. वास्तविक समस्या इससे भी कहीं ज्यादा गंभीर है. आश्रम और पुनर्वास इसका हल नहीं है. यह तो रोग होने के बाद का उपचार मात्र है. प्रहार तो रोग की जड़ों पर होना चाहिए. पर इसके लिए समस्या की जड़ तक जाना होगा. आज युवाओं के सामने सबसे बड़ी समस्या है लगातार महंगी होती उच्च शिक्षा, अनिश्चित भविष्य, वैवाहिक आयोजनों पर होने वाला लाखों का खर्च और पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ. सामाजिक बंधन इस समस्या को और जटिल बना देते हैं. एक तरफ “ग्लोबल विलेज” पैर पसार रहा है, प्रेम संबंध, रिलेशनशिप, ब्रेकअप, लिव-इन का चलन बढ़ रहा है. इसे काफी हद तक स्वीकार्यता भी मिल रही है. पर जब बात वैवाहिक संबंधों की आती है तो तमाम मुश्किलें सामने आकर खड़ी हो जाती हैं. अमुक कुल, जाति, वर्ण या गोत्र में विवाह नहीं हो सकता, जैसी तमाम पेचीदगियां हैं. पारीवारिक हैसियत भी आड़े आती है. समाज और परिवार का साथ नहीं मिलता तो लड़के पीछे हट जाते हैं. दूसरी तरफ ऐसे समुदाय हैं जिनके यहां ऐसा कोई बंधन नहीं है. उलटे वहां हिन्दू लड़कियों से विवाह के प्रस्ताव पर खुशियां मनाई जाती हैं. रही दैहिक-मानसिक शोषण-उत्पीड़न की बात तो देह मंडियों तक पहुंची अधिकांश लड़कियों की भी यही कहानी है. इसमें सभी जाति, धर्म और समुदाय की लड़कियां शामिल हैं. उन्हें बहकाने वाले भी केवल मुसलमान नहीं हैं.