ममता चन्द्राकर 1974 से गा रही हैं “अरपा पैरी के धार”
खैरागढ़/भिलाई। छत्तीसगढ़ी लोकगीत की पर्याय बन चुकीं पद्मश्री डॉ मोक्षदा (ममता) चन्द्राकर ने “अरपा पैरी के धार, महानदी हे अपार” को पहली बार 14 मार्च 1974 को मंच पर प्रस्तुत किया था। तब वे महज 15 साल की थीं। तब से वे इस गीत को सैकड़ों बार गा चुकी हैं। आज यह गीत छत्तीसगढ़ का राज्य गीत है। माता-पिता के आशीर्वाद से आज उनकी झोली उपलब्धियों से भरी हुई है। सम्प्रति वे इंदिरा संगीत कला विश्वविद्यालय की कुलपति हैं। लोककलाकारों की यह खासियत होती है कि वे दिलों पर राज करते हैं। उपलब्धियां चाहे कितनी भी बड़ी हों, उनके सहज-सरल-अल्हड़ स्वभाव पर वह परदा नहीं डाल पातीं। यह विशेषता हमने पद्मविभूषण तीजन बाई में भी देखी है और अलका चन्द्राकर भी अपवाद नहीं हैं। हमने उनसे मिलने की इच्छा जताई और इंतजार करने लगे। पर तत्काल ही बुलावा आ गया। तब तक हम नाम पट्टिका में उलझे रहे। डॉ मोक्षदा (ममता) चन्द्राकर। दरअसल उनका नाम मोक्षदा ही है। ममता नाम लोकमंचों पर मिला। और यही नाम उनकी पहचान बन गई। लोग मोक्षदा को उनकी बहन समझते हैं। ये दोनों नाम आगन्तुकों को तब भी उलझाती थीं जब वे आकाशवाणी की निदेशक थीं। हम एमजे ग्रुप ऑफ एजुकेशन की निदेशक डॉ श्रीलेखा विरुलकर की प्रेरणा से खैरागढ़ विश्वविद्यालय पहुंचे थे।
चेहरे पर सदाबहार मुस्कान लिये उन्होंने इतनी आत्मीयता के साथ हमारे अभिवादन को स्वीकार किया कि लगा हम बरसों से एक दूसरे को जानते हैं। विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार डॉ आईडी तिवारी सहित और लोग भी मौजूद थे। बातों-बातों में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने का अवसर मिला। इस रिपोर्ट में हम उसी को साझा कर रहे हैं।
मोक्षदा (ममता) चन्द्राकर के पिता दाऊ महासिंह चन्द्राकर लोक संगीत के प्रकाण्ड मर्मज्ञ थे। जमींदार परिवार से होने के कारण हालांकि बचपन में उनपर बंदिशें बहुत थीं पर वे छिप-छिप कर नाचा का मंचन देखते थे। उनकी साधना रंग लाई। शहर में जब भी कोई संगीतकार आता वे उसे कार्यक्रम के बाद घर जरूर लेकर आते। रात चाहे कितनी भी बीत चुकी हो, ममता को उठाया जाता और गाने के लिए कहा जाता। उन्होंने अपनी बेटी के लिए एक बड़ा सपना जो देखा था। जागी आंखों से देखा गया यह सपना पूरा होता चला गया।

ममता ने 9 साल की उम्र में अपनी पहली मंचीय प्रस्तुति दी। तब वे हिन्दी गीत भी गाती थीं। 15 वर्ष की उम्र में ग्राम ओटेबंद में उन्होंने पहली बार “अरपा पैरी के धार, महानदी हे अपार” की प्रस्तुति दी थी। दरअसल यह गीत डॉ नरेन्द्र वर्मा के उपन्यास ‘सुबह की तलाश’ का हिस्सा है। इस उपन्यास का डॉ नरेन्द्र देव और उनके पिता दाऊ महासिंह चन्द्राकर ने मिलकर छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया था। दाऊ महासिंह चन्द्राकर ने इसका नाट्य रूपांतरण किया था। यह गीत इस नाटक की प्रस्तुति से पहले गाया जाता था। नवम्बर 2019 में इस गीत को छत्तीसगढ़ का राजगीत घोषित किया गया और ममता ने ही इसे स्वर दिया।
उपलब्धियों से झोली भरी
ममता बताती हैं कि उनके माता-पिता ने जो सपना देखा था वह पूरा हुआ। 1977 में आकाशवाणी से जुड़ीं तथा अनेक उपलब्धियां हासिल कीं। 1981 में यूपीएससी के जरिए वे आकाशवाणी की अधिकारी बनीं। 36 वर्षों तक सेवा के दौरान उन्होंने कई मुकाम हासिल किये और केन्द्र निदेशक के रूप में 2018 में अवकाश प्राप्त किया। 1981 में उन्होंने इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से शास्त्रीय संगीत में एमए किया। 2017 में इसी विश्वविद्यालय ने उन्हें डीलिट की मानद उपाधि प्रदान की और जुलाई 2021 में वे इसी विश्वविद्यालय की कुलपति नियुक्त की गईं। 2012 में उन्हें दाऊ मंदराजी सम्मान से नवाजा गया। 2013 में पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय द्वारा छत्तीसगढ़ रत्न की उपाधि दी गई। 2016 में उन्हें पद्मश्री से विभूषित किया गया। माता-पिता के अवसान के बाद पति और लोककला मर्मज्ञ प्रेम चन्द्राकर उनके प्रेरणा स्रोत और आदर्श बन गए। उनके साथ पिछले 12 वर्षों से लोककला पर आधारित कार्यक्रम “चिन्हारी” के जरिए कलाकारों को आगे ला रही हैं। लोककथा “लोरिक चंदा” प्रेम-ममता का ड्रीम प्रोजेक्ट है। इसकी 200 से अधिक प्रस्तुतियां दी जा चुकी हैं। जल्द ही यह चलचित्र के रूप में आ रहा है।