Nagin Tanveer speaks on plight of Chhattisgarh

छत्तीसगढ़ियापन पर छलका नगीन तनवीर का दर्द

मध्यभारत के प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर की पुत्री नगीन तनवीर को छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी से गहरा लगाव है. वे बासी और अंगाकर रोटी की मुरीद हैं. उनके पिता के साथ काम करने वाले और उन्हें चाहने वाले रायपुर, भिलाई-दुर्ग और राजनांदगांव में आज रंगमंच को जीवित रखे हुए हैं. राजनांदगांव प्रवास के दौरान नगीन ने छत्तीसगढ़ की लुप्त होती संस्कृति पर चिंता जताई. उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ी गीतों में भी अब हिन्दी का तड़का लग गया है. इनमें शुद्धता नहीं रही. फैशन के मारे लोग गोंदली, पनही, बंडी, अंगरखा, पपची सोहारी के विषय में नहीं जानते. खेतों में लोग अब ददरिया गाते हुए नहीं दिखाई देते. भड़ौनी, पंथी का भी लगभग लोप हो चुका है. थपड़ी पीटकर सुआ गाने वालों की संख्या में भी तेजी से गिरावट आई है. छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति अब केवल तीज त्यौहारों में ही थोड़ा बहुत दिखाई देती है. वे ठीक कह रही हैं. विकास के क्रम में भाषा और संस्कृति बदलती है. स्कूलों में अनिवार्य संस्कृत शिक्षण के बावजूद संस्कृति विलुप्त हो रही है. जो लोग संस्कृत में कामकाज करते हैं, उनका भी उच्चारण अशुद्ध है. शायद लिखने में भी गलितियां करें. वैसे फिल्मों में हिन्दी का पुट समय सापेक्ष है. फिल्में बनाना कोई हंसी खेल का विषय नहीं है. फिल्मों को लाभ का व्यवसाय बनाने के लिए उन्हें ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचाना होता है. इसमें भाषा के साथ थोड़ी छेड़छाड़ जरूर होती है पर उससे नए नए भाषा समुदायों का सम्पर्क भी बढ़ता है. हिन्दी फिल्मों की भोजपुरी का वास्तविक भोजपुरी से केवल टूटा-फूटा सा संबंध है. पर इस बहाने भोजपुरी का अच्छा खासा प्रसार हो गया. 1963 में शुरू हुई भोजपुरी सिनेमा आज दुनिया के लगभग 12 देशों में लोगों का मनोरंजन कर रही है. दरअसल, शिक्षा के साथ ही भाषा परिष्कृत और मार्जित हो जाती है. तालाब किनारे, पुल-पुलिया पर जिन दोहों-मुहावरों का प्रयोग किया जा सकता है, कदाचित उनका प्रयोग कक्षाओं में या मंच पर नहीं किया जा सकता. खान-पान पूरे देश-दुनिया का बदल रहा है. यह परिवर्तन की चाहत है. इसे रोकने की कोशिश करना समय का अपव्यय है. वैसे भी फैशन की तरह खान-पान और नृत्य-गीत भी लौट कर आते हैं. एक अर्से बाद जब ये लौटते हैं तो ये फिर से नए लगने लगते हैं. छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ियापन लौट रहा है. रायपुर के हिन्दी अखबारों के दफ्तर में भी अब छत्तीसगढ़ी बोलने वालों की अच्छी खासी संख्या है. गैर छत्तीसगढ़िया लोग भी संगत में छत्तीसगढ़ी सीखने लगे हैं, बोलने लगे हैं. यह एक सहज प्रक्रिया है. इसे जटिल बनाने की आवश्यकता नहीं है. पिछले चार सालों में सरकार ने छत्तीसगढ़िया स्वाभिमान का जो राग छेड़ा है उसके चलते लुप्त हो चले छत्तीसगढ़ी गीत, मुहावरों, कहावतों, दोहों का दौर लौट रहा है. गढ़ कलेवा के नाम पर छत्तीसगढ़ी व्यंजनों का पुनरुद्धार हो रहा है. छत्तीसगढ़ी फिल्मों को हिन्दी सदृश बनाने का लभ यह हुआ है कि इसके दर्शक बढ़ रहे हैं. यह भाषा के विकास के लिए अच्छा है.

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