गुस्ताखी माफ : अब प्रकृति दिखा रही अपना रौद्र रूप
मॉनसून अब मध्यभारत से जाने को है. इस बार मॉनसून के दौरान लगातार मूसलाधार बारिश, भूस्खलन, बाढ़, बादल फटने, शहरों में सड़कों पर नाव चलने की खबरें आती रहीं. जो इसे भोगते हैं केवल वही इसकी भयावहता का अंदाजा लगा सकते हैं. शेष लोगों की लिए यह केवल एक खबर होती है. पिछले कुछ वर्षों में ऐसी घटनाओं की संख्या और भयावहता, दोनों में वृद्धि हुई है. संयुक्त राष्ट्र के विश्व मौसम संगठन के निदेशक स्टेफ़ान उहलनब्रुक की मानें तो अनियोजित नगरीकरण, भूमि उपयोग में बदलाव और बदलती जलवायु के कारण अब कई क्षेत्रों में बाढ़ों की बारम्बारता और तीव्रता लगातार बढ़ रही है. वो बताते हैं कि हर अतिरिक्त एक डिग्री सैल्सियस तापमान बढ़ने पर, वायुमंडल लगभग 7 प्रतिशत अधिक जलवाष्प, अपने भीतर संचित कर सकता है. इस स्थिति से अत्यधिक वर्षा की घटनाओं का जोखिम बढ़ रहा है. साथ ही, गर्म होती जलवायु के कारण तेज़ी से पिघलती बर्फ़ से हिमनद से जुड़ी बाढ़ का ख़तरा भी बढ़ रहा है. मौसम विज्ञान केंद्र देहरादून के अनुसार पूरे मानसून सीजन में बारिश तो लगभग समान ही हो रही है, लेकिन ‘रेनी डे’ की संख्या में कमी आई है. रेनी डे उस दिन को कहते हैं जब किसी एक स्थान पर एक दिन में 2.5 मिमी या उससे अधिक बारिश हो. अर्थात, जो बारिश पहले 7 दिनों में होती थी, वह अब केवल 3 दिनों में ही हो जा रही है, जिससे हालात बिगड़ रहे हैं. मानसून पहले जून से सितंबर तक फैला होता था, वह अब केवल जुलाई-अगस्त तक सिमट गया है. इसके लिए वनों का असमान वितरण जिम्मेदार है. उत्तराखंड के 70% से अधिक क्षेत्र में वन हैं, लेकिन मैदानी क्षेत्रों में वन नाममात्र के ही हैं. ऐसे में मानसूनी हवाओं को मैदानों में बरसने के लिए अनुकूल वातावरण नहीं मिल पाता और पर्वतीय क्षेत्रों में घने वनों के ऊपर पहुंचकर मानसूनी बादल अतिवृष्टि के रूप बरस जाते हैं. वाडिया इंस्टिट्यूट के भू-भौतिकी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. सुशील कुमार का कहना है कि अब पहाड़ों में ‘मल्टी क्लाउड बर्स्ट’ की स्थिति पैदा हो गई है. यानी कई बादल एक साथ, एक ही स्थान पर फट जाते हैं. टिहरी बांध बनने के बाद ऐसी घटनाओं में इजाफा हुआ है. भागीरथी नदी पर बने टिहरी का जलाशय लगभग 32 लाख एकड़ फीट में फैला है. ऊपरी जल क्षेत्र करीब 52 वर्ग किमी है. इसके कारण बादल बनने की प्रक्रिया तेज हो गई है. मानसून सीजन में ये बादल इस पानी को ‘सह’ नहीं पाते और फट जाते हैं. बांधों-खदानों को लेकर पर्यावरणविद और पर्यावरणप्रेमी लगातार चेतावनी देते रहे हैं पर नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. वैज्ञानिक उपकरण और निजी क्षेत्र के प्रवेश से स्थिति और बिगड़ गई है. रातों-रात हजारों एकड़ जंगल साफ हो रहे हैं, झीलें बन रही हैं. प्रकृति संभले भी तो कैसे? इसलिए अब प्रकृति भी किसी को मौका नहीं दे रही.