Alakhnath descends in this mountain village

उत्तराखंड के इस अंचल में आधी रात को अवतरित होते हैं अलखनाथ शिव

पिथौरागढ़। ख्वदै पूजा की परंपरा मुख्य रूप से उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले, विशेषकर मुनस्यारी के गांवों में है. तल्ला जोहार के नाचनी से लेकर मल्ला जोहार तक इस पूजा का आयोजन किया जाता है. इसके अलावा कनालीछीना ब्लॉक के आणांगांव सहित कुछ अन्य गांवों में भी यह अनोखी पूजा होती है.
ख्वदै पूजा में अलखनाथ भगवान शिव की पूजा होती है. पूजा से एक दिन पहले देव डंगरियों को पवित्र नदियों या नौलों में स्नान कराया जाता है. दिन में अलखनाथ, दुर्गा, कालिका और स्थानीय देवी–देवताओं की स्थापना की जाती है. इसके बाद मंदिर परिसर में धूनी प्रज्जवलित की जाती है.
शाम को गणेश पूजा और महाआरती की जाती है. फिर ढोल–नगाड़ों की थाप पर जगरिये अलखनाथ की गाथा गाते हैं. इसी गाथा के दौरान भगवान अलखनाथ अवतरित होते हैं. देव डंगरियों के माध्यम से उनका आशीर्वाद श्रद्धालुओं को प्राप्त होता है. कुछ गांवों में यह पूजा 3 से 22 दिन तक चलती है.
ख्वदै पूजा में पदम वृक्ष को न्यौता देने की परंपरा है. पर्वतीय क्षेत्रों में पदम को पैय्यां कहा जाता है, इसलिए इसे ‘पैय्यां न्यौता’ कहा जाता है. पदम की टहनियां ढोल–नगाड़ों के साथ पूजा स्थल तक लाई जाती हैं और इन्हें पार्वती का स्वरूप मानकर भगवान अलखनाथ से विवाह की रस्म निभाई जाती है.
पूजा देर रात की जाती है. जहां पूजा होती है, उस कमरे की छत का छोटा हिस्सा खुला रखा जाता है. पूरी पूजा पर्दे के भीतर होती है, क्योंकि अलखनाथ एकांत पसंद करते हैं, इसलिए पवित्रता और गोपनीयता का विशेष ध्यान रखा जाता है.
चूंकि यह पूजा 11 साल में एक बार होती है, इसलिए नौकरी करने के लिए बाहर गए लोग भी इस अवसर पर अपने गांव जरूर लौटते हैं. ख्वदै पूजा को खुदा पूजा के रूप में भी जाना जाता है पर यह केवल सुविधाजनक अपभ्रंश ही प्रतीत होता है. इस अंचल में मुगलों के पहुंचने का कोई इतिहासिक साक्ष्य नहीं है. कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्र में हजारों लोक देवता हैं और उनकी पूजा की अलग-अलग परंपराएं हैं.

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