Daughter performs funeral rites in Chhattisgarh

गुस्ताखी माफ : अंतिम संस्कार पर क्यों न हो बेटियों का हक

पारम्परिक तौर पर माता-पिता के अंतिम संस्कार का अधिकार पुत्रों को होता है. पंडितों के अनुसार पुत्रों के अभाव में औरस पुत्र, गोद लिया पुत्र, भाई का पुत्र, पुत्री का पुत्र, पुत्र का पुत्र, खरीदा हुआ पुत्र, कृत्रिम पुत्र, दत्त आत्मा आदि अंतिम संस्कार कर सकते हैं, अर्थात मुखाग्नि दे सकते हैं. यदि किसी मृतक का खुद का पुत्र न हो तो इन 12 प्रकार के पुत्रों में से कोई पुत्र मृतक को मुखाग्नि दे सकता है. पुत्र पु नामक नर्क से बचाता है अर्थात् पुत्र के हाथों से मुखाग्नि मिलने के बाद मृतक को स्वर्ग प्राप्त होता है. इसी आधार पर पुत्र होना कई जन्मों के पुण्यों का फल बताया जाता है. इसे पुत्र के लिए ऋण भी कहा गया है. पंडितों के अनुसार किसी कन्या या महिला को शमशान में आने का भी अधिकार नहीं दिया गया है. अत: मृतक को कोई महिला या कन्या मुखाग्नि नहीं दे सकती. पर ये वर्जनाएं अब टूट चुकी हैं. कहीं से ढूंढ ढांड कर लाए गए पुत्र के विकल्प की बजाय अब कन्याएं ही अपने माता-पिता का अंतिम संस्कार कर रही हैं. विवाहित बेटियां भी इस कार्य को पूरी श्रद्धा के साथ कर रही हैं. समाज ने भी इसे लगभग स्वीकार कर लिया है. पर ऐसा बहुत कम होता है कि पुत्रों के रहते पुत्री इस संस्कार को सम्पन्न करे. छत्तीसगढ़ के ग्राम जांगड़ा में उमा वर्मा की पुत्री पुष्पा ने उनका अंतिम संस्कार किया. उमा वर्मा के दो पुत्र भी हैं जो क्रमशः रेलवे और सीआरपीएफ में कार्यरत हैं. उमा की अंतिम इच्छा थी कि उसका अंतिम संस्कार बेटी करे. बेटी ने मां की अंतिम इच्छा पूरी कर दी. पर अब समाज इस विषय में दो फाड़ हो गया है. कुछ लोग जहां इस विषय में विवाद को अनावश्यक मानते हैं वहीं समाज के प्रमुख कहते हैं कि यदि घर में विवाद की कोई स्थिति थी तो समाज उसे सुलझा सकता था. परम्पराओं को तोड़ना गलत है. पुष्पा की चचेरी बहन उसके साथ खड़ी है. वह कहती है कि अब जब कानून ने बेटियों को संपत्ति में भी बराबर का हिस्सा दे दिया है तो अंतिम संस्कार पर भी हक बन जाता है. वहीं मृतका की जेठानी कहती है कि सभी विवाद सुलझा लिये जाते, परम्परा नहीं तोड़नी थी. यही समाज की सबसे बड़ी दिक्कत है. जब तक लोग जीवित रहते हैं, उनकी समस्याएं उनकी अपनी और नितांत निजी बनी रहती हैं. समाज इससे पल्ला झाड़े रहता है. जैसे ही मृत्यु होती है समाज आकर खड़ा हो जाता है. भगवत गीता के अनुसार मृत्यु सिर्फ शरीर की होती है. इसके बाद आत्मा मुक्त हो जाती है. भोजन, वस्त्र, आदि शरीर की जरूरतें हैं. आत्मा इनसे मुक्त है. उसकी कोई भी जरूरत नहीं है. पार्थिव काया को सम्मान के साथ नष्ट करना होता है, क्योंकि इसे रखा नहीं जा सकता. इसलिए मुखाग्नि बेटा करे या बेटी, क्या फर्क पड़ता है?

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