गु्स्ताखी माफ : आस्था को आस्था ही रहने देते तो अच्छा रहता
आस्था किसी भी तर्क से परे होती है। ईश्वर का रूप चाहे कोई भी हो, यदि उसमें आपकी आस्था है तो है। इसपर कोई सवाल खड़े नहीं किये जा सकते। इसपर कोई बहस नहीं हो सकती। इसे जब-जब परिभाषित करने की कोशिश की जाएगी वितंडा खड़ा होगा। आस्था का जीवन में बड़ा महत्व है। आस्था से ही रिश्ते नाते हैं। आप बात-बात पर डीनए टेस्ट के लिए नहीं कह सकते। इसी तरह भगवानों की उत्पत्ति और उनके उपदेशों पर भी बहस नहीं हो सकती। यदि आप बहस करते हैं तो इसमें बाल की खाल निकाली जाएगी। जब बाल की खाल निकलेगी तो और सवाल खड़े होंगे। इसीलिए सनातन में आस्था को किसी भी बहस से परे रखा गया और जिसकी जैसी इच्छा हुई, उसने उस तरह से अपनी आस्था का अनुसरण किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण त्रेता में मिलता है। लंकापति रावण शैव थे। उनका भाई विभीषण वैष्णव था। रावण विभीषण के तौर तरीकों की हंसी उड़ाया करते थे। इसका नतीजा हम सभी जानते हैं। दरअसल, ईश्वरीय सत्ता में विश्वास ही न्याय-अन्याय की नींव या धुरी है। यदि पाप और पुण्य का बोध नहीं होता तो समर्थ लोग शेष लोगों को जीने नहीं देते। यदि रावण को श्राप का भय नहीं होता तो सीता माता सुरक्षित नहीं रहतीं। हम अभी वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं। हम शिक्षा प्राप्त करने स्कूल जाते हैं। इलाज कराने के लिए अस्पताल। सनातन में ज्ञान का दान होता था तो अब यह सबसे बड़ा व्यवसाय है। पारम्परिक इलाज करने वाले अब झोला छाप कहलाते हैं। विज्ञान के इस दौर में सबकुछ बदल गया है। पहले योद्धा स्वयं अपने शस्त्रों को सिद्ध करते थे तो अब इन्हें देश विदेश से खरीदा जा सकता है। नए दौर में तो बाजार भी मुट्ठी में है। तय आपको करना है कि आप विज्ञान के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं या कहानियों में खोए रहना चाहते हैं। मौटे तौर पर फिलहाल भ्रम का संक्रमण काल चल रहा है। हमें नया भी चाहिए और पुराने को भी पकड़े रहना है। संस्कार अब घर पर नहीं मिलते, इसलिए बाजार से लेना है।
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