Whay was Aaru Trolled?

आरू का ट्रोल होना : घासीदास की भूमि पर यह कैसी संकीर्ण सोच

जन्मदिन हो या विवाह वार्षिकी, बिना केक के कोई काम नहीं होता. बिना डांडिया के नवरात्रि नहीं होती, बिना पंजाबी पॉप के डांस नहीं होता. फिर छठ से बैर क्यों? एक किशोरी लोकगायिका के खिलाफ फतवा क्यों? वह भी तब जब राज्य शासन छठ पर शासकीय अवकाश की घोषणा करता है. छत्तीसगढ़ भारत का हृदय स्थल है. यहां भिलाई जैसा औद्योगिक तीर्थ है जिसे मिनी इंडिया कहा जाता है. राजनीतिक दृष्टिकोण से स्थानीय नेतृत्व की बात तो ठीक है पर इसे लेकर कला एवं संस्कृति पर हमला करना सर्वथा अनुचित और अवांछित है. देश के सभी नामचीन कलाकार एकाधिक भाषा में गायन करते रहे हैं. किशोर कुमार, लता मंगेशकर, आशा भोंसले, येशु दास, एसपी बालासुब्रमण्यम को इसके चलते पूरी दुनिया में ख्याति मिली. पर इधर छत्तीसगढ़ की एक बाल कलाकार केवल इसलिए ट्रोल हो गई कि उसने छठ गीत गाया है. लोकगायिका आरू की उम्र सिर्फ 14 साल है. उसपर माता सरस्वती की कृपा है. वह एकनिष्ठ होकर गीत-संगीत की साधना कर रही हैं. वैसे भी छठ पर्व पूरे छत्तीसगढ़ में धूमधाम से मनाया जाता है. शासन और प्रशासन भी इसमें सहयोग करता है. बिलासपुर में अरपा नदी के तट पर स्थित तोरवा घाट देश का सबसे बड़ा सुव्यवस्थित छठ घाट है. आकार के मापदण्ड पर यह मुम्बई के जुहू बीच के बाद दूसरा सबसे बड़ा छठघाट है. छठी मइया तो पूरे भारत की आराध्य हैं. अपने संतान की सुरक्षा, अच्छी सेहत और लंबी आयु के लिए सभी माताएं माता षष्ठी को मानती हैं. विभिन्न प्रांतों में इस पर्व को मनाने का तरीका अलग अलग हो सकता है पर भावनाएं एक जैसी ही होती हैं. यह किस तरह से किसी संस्कृति पर हमला हो गया, यह समझ से परे है. आज छठ गीत का विरोध हो रहा है. तो क्या कल को इडली दोसा खाने का विरोध शुरू हो जाएगा? सुबह-सुबह पोहा बेचने वालों को खदेड़ा जाएगा? यह किस संस्कृति की बात हो रही है? क्या छत्तीसगढ़ी भाषा की अस्मिता के लिए आत्मानंद इंग्लिश मीडियम स्कूलों को बंद करन की मांग की जाएगी? इंग्लिश ही क्यों, हिन्दी मीडियम स्कूल भी तो छत्तीसगढ़ी को नुकसान पहुंचाते हुए लगेंगे. हम जिन पर्यटनस्थलों का विकास कर रहे हैं क्या वहां भी बाहरी लोगों का आना वर्जित कर दिया जाएगा? संस्कृति बचाने के चक्कर में कहीं हर चीज का विरोध करने की अपसंस्कृति हावी हो गई तो छत्तीसगढ़ टापू बनकर रह जाएगा. देश-दुनिया में जितने भी वाहियात आंदोलन हुए हैं, सबकी शुरुआत इसी तरह हुई है. आरंभिक चरण में ऐसे विचारों को नजरअंदाज कर दिया जाता है. पर विचार कभी मरते नहीं. एक बार कही गई बात सालों-साल लोगों की जेहन में कैद हो जाते हैं. इतिहास गवाह है कि ऐसे सभी आंदोलन कुछ समय बाद अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने की कहावत को ही चरितार्थ करते हैं. गुरू घासीदास की इस धरती पर ऐसी छोटी सोच को बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए. प्रभु श्रीराम के ननिहाल में ऐसी अपसंस्कृति को पनपने नहीं दिया जा सकता.

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