जब सर्टिफिकेट ही हो जाए सबकुछ, तो इतना तो बनता ही है
देश सिस्टम से चलता है. सिस्टम सर्टिफिकेट की बांदी है. इसलिए सारी काबीलियत एक तरफ और सर्टिफाइड प्रफेशनल एक तरफ. कभी सुअर की किडनी लगाकर मरीज को चंगा करने वाला डाक्टर गिरफ्तार हो जाता है, कभी सड़क हादसे में घायल दर्जनों लोगों के इलाज में सहभागिता के लिए कम्पाउंडर और ड्रेसर सस्पेंड हो जाते हैं. भिलाई की ही बात करें तो एक सर्टिफाइड न्यूरो सर्जन को केवल इसलिए शो-कॉज नोटिस जारी कर दिया गया कि उसने इमरजेंसी में एनेस्थेटिस्ट का काम संभाल लिया था. बात यहां लोगों का जीवन बचाने की नहीं बल्कि सर्टिफिकेट और प्रोसीजर की है. इसलिए सर्टिफिकेट जुगाड़ने-कबाड़ने को ही लोग ज्यादा तरजीह देने लगे हैं. पूरा फोकस सर्टिफिकेट पर होता है. यह तो जगजाहिर है कि जिसकी डिमांड ज्यादा होती है, उसके भाव अपने आप बढ़ने लगते हैं. यही बढ़ा हुआ भाव भ्रष्टाचार को जन्म देता है. खबर है कि स्कूल बसों और ड्राइवरों को बिना जांच के ही फिटनेस सर्टिफिकेट दे दिया गया. खबर में बताया गया है कि 150 मिनट में 158 बसों की फिटनेस जांच पूरी कर दी गई. इसी तरह ड्राइवर की आंख और कान की जांच किए बिना ही उन्हें भी मेडिकल फिटनेस दे दिया गया. क्या बड़ी बात है. पिछले तीन सालों से बच्चे बिना पढ़े ही पास हो रहे हैं. पास सर्टिफिकेट के आधार पर वो अगली कक्षाओं में जा रहे हैं. वहां टीचर अपना सिर पीट रहे हैं. जिस बच्चे को अभी भाषा ही ठीक से नहीं आई, वह हाईस्कूल कैसे पास हो गया? वैसे भी हिन्दी, अंग्रेजी, हिस्ट्री, ज्योग्रफी, बॉटनी में पीएचडी करने वालों के ज्ञान में भी एकरूपता कहां होती है. बिना बीएड के टीचरों ने जिन लोगों को पढ़ाया, उनके ज्ञान की दुहाई लोग आज तक दे रहे हैं. बीएड करने के बाद बच्चा नया क्या सीखा? क्या उसमें शिक्षक बनने के गुण उभर आए? खेला सिर्फ सर्टिफिकेट का है. यही बात पत्रकारिता पर भी लागू होती है. क्या डिग्री लेने के बाद उसकी पत्रकारिता में कोई सुधार या निखार आया?
सरकार को हर बात का सिर्फ और सिर्फ सर्टिफिकेट चाहिए. जीवित या मृत होने के प्रमाण के बिना स्वयं इंसान का अस्तित्व खतरे में है. जब इतनी बड़ी संख्या में लोगों को प्रमाणपत्र देना हो तो इसका एक अलग सिस्टम बनना तो बनता है. सरकार ने बनाया नहीं इसलिए लोगों ने खुद बना लिया. अपना फार्म भर कर लाओ, साथ में एक गांधी लाओ, जहां कहोगे दस्तखत कर देंगे, ठप्पा लगा देंगे. आपको बोलने में शर्म आती है, डर लगता है तो किसी दलाल के पास जाओ, आपका काम वह कर देगा. थोड़े पैसे उसके भी बन जाएंगे. देश का यही इकलौता सिस्टम है जो बढ़िया चलता है. इस सिस्टम के ट्रेनी, टीचर और हेडमास्टर भी होते हैं. ये आधुनिक काल के संकटमोचन हैं. काम कैसा भी हो, ये न केवल उसकी जिम्मेदारी लेते हैं बल्कि पूरा भी करके देते हैं. ये भारतीय सिस्टम में ग्रीस और ऑयल बनकर अपना काम करते हैं. दिखाई तो नहीं देते पर इंजन को चालू रखने में इनकी भूमिका बराबर की होती है.