Commercialization of education

स्कूली शिक्षा के व्यवसायीकरण से नष्ट हो रही संस्कृति

स्कूलों में न जाने ऐसा क्या पढ़ाया जा रहा है कि भारत की पूरी संस्कृति ही खतरे में पड़ गई है. इसका गलत मतलब निकालने की जरूरत नहीं है. पाठ्यक्रम में कुछ भी गलत-सलत नहीं पढ़ाया जा रहा. पर स्कूलों के संचालन की जिम्मेदारी संभालने वाला मंत्रालय, विभाग, संस्थाएं और पाठ्यपुस्तक छापने वाले मिलकर एक ऐसा खेल-खेल रहे हैं जिसके लाभ कम और नुकसान ज्यादा हैं. साल दर साल पाठ्यक्रम में नई-नई चीजें जुड़ती जा रही हैं. पढ़ाई का बोझ इतना बढ़ गया है कि बच्चों को अवकाश देने में भी तकलीफ होने लगी है. गर्मी और दीपावली की छुट्टियों को तो लोग भूल ही चुके हैं. ये छुट्टियां बच्चों के समग्र विकास के लिए बेहद जरूरी थीं. बच्चे इन छुट्टियों में कहानियां पढ़ते थे. गांव जाकर अपने रिश्तेदारों से मिलते थे. खुलकर तीज-त्यौहार मनाते थे. उनमें संस्कृति और परिवार का बोध बढ़ता था. रिश्ते-नातों की समझ पैदा होती थी. दादा-दादी या नाना-नानी से कहानियां सुनते थे. गांव के जीवन से जुड़ते थे, अपनी जड़ों को पहचानते थे. पर अब एक क्लास की परीक्षा हुई नहीं कि दूसरी शुरू हो जाती है. इसके बाद जो छुट्टियां मिलती हैं, वह भी तनाव में ही गुजरती हैं. साल दर साल चल रही इस ग्रिलिंग का ही नतीजा है कि कम उम्र में ही बच्चे टेंशन और डिप्रेशन जैसे शब्दों से खेलने लगते हैं. बच्चों को टेंशन फ्री रहने की नसीहत देने वालों की अलग दुकानें खुल चुकी हैं. यही तनाव आगे चलकर उन्हें नशाखोरी के लिए प्रेरित कर रहा है. आज शहरी स्कूलों में नशाखोरी इस कदर बढ़ चुकी है कि 9वीं और 10वीं के बच्चे भी ड्रग्स कर रहे हैं. प्रतिस्पर्धा करने की होड़ में हम यह भूल रहे हैं कि बच्चा भी मनुष्य है. उसके स्वाभाविक विकास के लिए स्वाभाविक परिस्थितियां चाहिए. तीन दशक पहले तक जहां केवल इंटेलीजेंस कोशेंट-आईक्यू की बातें होती थीं अब इसके साथ इमोशनल कोशेंट-ईक्यू और एडवर्सिटी कोशेंट-एक्यू की बातें होने लगी हैं. रिश्तेदारों के बीच रहने से वह भावनात्मक रूप से मजबूत होता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे प्रयोगशाला में निर्मित नहीं किया जा सकता. चचेरे ममेरे भाई-बहनों के साथ उसकी एक हम उम्र कम्युनिटी बनती है. वह शैतानियां करता है, नादानियां करता है. बच्चे ही उसका हल निकालते हैं और वह जीवन जीने की कला सीखता चला जाता है. जिन बातों को वह अपने माता-पिता से शेयर नहीं कर पाता, उसे ऐसे रिश्तेदारों के साथ शेयर कर लेता है जिससे उसकी ट्यूनिंग अच्छी होती है. सबको, सबके बारे में सबकुछ पता होता है. जीवन में शॉक की गुंजाइश कम हो जाती है. तीस या चालीस साल पहले का बच्चा भले ही वार्षिक परीक्षाओं में 99 प्रतिशत स्कोर नहीं करता था, पर वह मानसिक तौर पर आज के बच्चे से सौ गुना मजबूत होता था. समस्याएं उसे नशाखोरी या आत्महत्या के लिए प्रेरित नहीं करती थी. वह इमोशनलेस रोबोट नहीं था.

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