Tagore limited to bengali society

गुस्ताखी माफ : नोबेल विजेता टैगोर भी रह गए केवल बंगालियों के

रविन्द्रनाथ टैगोर (ठाकुर) को 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था. देश के राष्ट्रगान – जन-गण-मन के रचयिता कविगुरू रविन्द्रनाथ ठाकुर अब केवल बंगालियों के होकर रह गए हैं! 9 मई को उनकी 162वीं जयंती थी. भिलाई के कालीबाड़ियों (काली मंदिर) में इस अवसर पर कुछ कार्यक्रमों का आयोजन किया गया. इन आयोजनों में सिर्फ बंगाली ही दिखाई दिए – वो भी लगभग सभी 50 पार के. इनमें भी 60 पार करने वाले ही ज्यादा थे. कविगुरू सिर्फ कवि और गीतकार ही नहीं थे. वे एक दार्शनिक, नाट्यकार, संगीतकार, चित्रकार, कहानी और उपन्यासकार भी थे. 16 साल की उम्र में वे पहली बार रंगमंच पर आए और अपने भाई द्वारा अनूदित एक नाटक में मुख्य पात्र का किरदार निभाया. 20 वर्ष की उम्र में उन्होंने “वाल्मीकि प्रतिभा” को मंच पर उतारा. यह एक ड्रामा-ऑपेरा था. 16 साल की उम्र में ही उन्होंने अपनी पहली कविता “भिखारिन” को जन्म दिया. हजारों कहानियां, उपन्यास, गीत और कविता लिखने वाले इस मनीषी का 7 अगस्त, 1941 को अवसान हो गया. देश को अब उनसे जुड़ी तिथियां तो याद हैं पर उनके कृतित्व की चर्चा कम ही होती है. बंगाल में उनकी कविताओं को स्कूल-कालेज में पढ़ाया जाता है. शायद इसीलिए रविन्द्र संगीत किसी न किसी रूप में जिन्दा है. रविन्द्र नृत्य नाट्य पर भी वहां काफी काम होता है. पर शेष भारत में उन्हें लेकर इतना उत्साह दिखाई नहीं देता. दूसरों को छोड़ भी दें तो स्वयं बंगाली समाज के युवाओं को अब रविन्द्रनाथ आकर्षित नहीं करते. ऐसा नहीं है कि इस समाज में रचनाधर्मी लोगों की कोई कमी है. समाज की युवा पीढ़ी में कवि हैं, गायक भी हैं, संगीतकार भी हैं, फिल्ममेकर भी हैं. चित्रकार, कहानीकार और उपन्यासकार भी हैं. देश में कविताओं का, नाटकों का, यहां तक कि गीतों का भी अनुवाद होता आया है. इनमें से कई मशहूर भी हुए हैं. हाल ही में श्रीलंका का एक गीत खूब वायरल हुआ जिसका अनुवाद लगभग सभी भारतीय भाषाओं में हुआ. पर ऐसा कुछ रविन्द्र संगीत को लेकर नहीं हो पाया. दरअसल, प्रबुद्ध भारतीय समाज तकनीकी रूप से उन्नत पश्चिमी थिएटर जगत के मोहपाश में उलझ कर रह गया. तकनीकी की दीवानगी कुछ ऐसी हुई कि बंगाल-उड़ीसा की जात्रा कला, छत्तीसगढ़ का नाचा-गम्मत जैसे स्थानीय विधाएं सिमटने लगीं. फिल्मकारों ने कमाई को ध्यान में रखकर काम करना शुरू कर दिया. विवादित विषयों पर फिल्मों का जन्म इसी उर्वर पृष्ठभूमि में हुआ. इनका राजनीतिक उद्देश्य भी हो सकता है, पर वह उतना महत्वपूर्ण नहीं है. ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि लोगों की सोई हुई इतिहास चेतना को जगाया कैसे जाए. आज फिल्में, शार्ट फिल्में और वेब सिरीज ही ज्यादा लोकप्रिय हैं. इनमें से अधिकांश में सेक्स और हिंसा के अलावा ज्यादा कुछ नहीं होता. पर कमर्शियल सक्सेस के लिए कंटेंट का सौ टका खरा होना कहां जरूरी है. उसका केवल विश्वसनीय और भड़काऊ होना ही काफी होता है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *