Floating island halts due to garbage around Parashar Lake

गुस्ताखी माफ : मलमूत्र देखकर ठिठक गया पाराशर झील में तैरता टापू

हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में स्थित एक प्रसिद्ध मंदिर है, जो पराशर झील के किनारे स्थित है. इस झील में एक तैरता हुआ टापू है. यह टापू झील के पानी में घूमता रहता है. इसकी स्थिति समय के साथ बदलती रहती है. पराशर ऋषि के इस मंदिर को 13वीं-14वीं शताब्दी में राजा बाणसेन द्वारा बनवाया गया था. मान्यता है कि ऋषि पराशर ने इसी स्थल पर समाधि ली थी. हाल ही में यहां सरनाहुली मेला लगा. 15 और 16 जून को लगे इस मेले में आसपास के 20 गांवों के देवताओं को भी लाया गया. इस दौरान लगभग 15 हजार श्रद्धालु भी यहां पहुंचे थे.चूंकि, इस स्थान पर ठहरने की कोई पक्की सुविधा नहीं है, इसलिए लोगों ने यहां तंबुओं में ही डेरा जमाया. मेला खत्म होने के बाद अब गांव के युवा इस स्थल की सफाई कर रहे हैं. सफाई में जुटे युवा बताते हैं कि लोगों ने यहां मल-मूत्र से लेकर, सैनिटरी पैड, डायपर, बचा खुचा भोजन, खाली शराब की बोतलें पालीथीन में बांध-बांध कर इधर उधर फेंक दिया. इस गंदगी का इस पवित्र स्थान पर विपरीत असर पड़ा है. मंदिर के सेवादारों का कहना है कि कोरोना काल में जब यहां कोई भी नहीं आ रहा था, तब झील का पानी एकदम स्वच्छ था. उस समय तैरता टापू दिन में झील के कई चक्कर काट लेता था. पर अब इस गंदगी के बाद टापू एक स्थान पर स्थिर हो गया है. सेवादार बताते हैं कि यह देश के लिए अच्छा संकेत नहीं है. चलो इसी बहाने सही, लोग स्वच्छता को लेकर जागरूक तो होंगे. दरअसल, स्वच्छता के मायने ही बदल गए हैं. घिन और शुद्धता जैसे शब्दों का तेजी से विलोपन हो रहा है. पिछले 50 सालों में शौचालय बेडरूम तक पहुंच गया है. इन्हें स्वच्छ और खुशबूदार रखने के सौ साधन उपलब्ध हैं. पालीथीन भी एक ऐसा ही विकल्प है. लोग घरों में भी खाना आर्डर करते हैं तो कुछ न कुछ बच ही जाता है. इसमें कटी हुई सलाद, चटनियां और थोड़ा बहुत भोजन शामिल होता है. खुला छोड़ दें तो इसकी बदबू से लोगों को घर छोड़ना पड़े. पर पालीथीन है न. कूड़ा करकट पालीथीन बैग में भरकर उसका मुंह कसकर बांध दो तो कचरा टेबल पर भी रह सकता है. पराशर मंदिर में जितने भी लोग पहुंचे थे वो सब के सब श्रद्धालु नहीं थे. इनमें से बहुत सारे लोग पर्यटन के लिए यहां पहुंचे थे. उन्होंने यहां मौज मस्ती भी की. खाना कुछ साथ लेकर आए थे कुछ आर्डर कर लिया. मगर पॉट्टी का कोई इंतजाम नहीं था. पीने-खाने वालों का दिल थोड़ा बड़ा होता है. वे बोतलें उन बच्चों के लिए छोड़ आते हैं जो सुबह उन्हें बीनकर बाजार में बेच कर चार पैसे कमा लेते हैं. फिलहाल पूरा जोर स्वच्छता पर है. पानी छींटकर शुद्ध होना अब नहीं भाता. शुद्धता और स्वच्छता में फर्क तो होता है.

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