School games participants face odd situations

शालेय खेलों में अव्यवस्था ; तो क्या आसमान से टपकेंगे ओलम्पिक खिलाड़ी?

बच्चों को देश का भविष्य कहा जाता है. इस भविष्य को संवारने के प्रति हम कितने संवेदनशील हैं, इसकी बानगी बिलासपुर में देखने को मिली. अवसर था 22वीं राज्य स्तरीय शालेय क्रीड़ा प्रतियोगिता का. राज्य के पांच संभागों से चुने गए 1600 खिलाड़ी छह खेलों में भाग लेने के लिए यहां पहुंचे थे. कराटे, बेसबॉल, कबड्डी, हॉकी, क्रिकेट और फ्लोर बॉल के लिए पहुंचे इन बच्चों के साथ वह सबकुछ दोहराया गया जिसके लिए भारत की अपनी अलग ही ख्याति है. इन खिलाड़ियों के ठहरने की व्यवस्था जहां की गई थी वहां उन्हें मच्छरों से बचाने का कोई इंतजाम नहीं था. खिलाड़ी रात भर ठीक से सो नहीं सके. डेंगू का खतरा अलग मंडरा रहा था. सुबह ठहरने की जगह से पैदल ही क्रीड़ांगन तक पहुंचे इन खिलाड़ियों और इनके शिक्षक प्रभारियों के बैठने की लिए कोई व्यवस्था नहीं थी. न तो उनके लिए नाश्ते का प्रबंध था और न पानी का. दोपहर का भोजन भी बीच में ही खत्म हो गया. क्रीड़ा विभाग के अधिकारियों का कहीं अता-पता नहीं था. शिकायत करते भी तो किससे? मंच तो केवल अतिथियों के लिए बना था. अधिकारियों को भी केवल अतिथियों की ही फिक्र थी. आयोजक स्कूल शिक्षा विभाग न जाने किन कार्यों में व्यस्त था. जिस राजा रघुराज सिंह स्टेडियम में इन खेलों का आयोजन किया गया था, वह एक क्रिकेट ग्राउंड है. ग्राउंड को इन खेलों के लिए तैयार नहीं किया गया था. खेलकूद के मैदान में फर्स्ट एड की सुविधा के बारे में तो शायद स्कूल शिक्षा विभाग ने कभी सुना भी न हो पर खेल विभाग भी इतना निकम्मा हो सकता है, इसका किसी को अंदाजा तक नहीं था. दरअसल, स्कूल और कालेज के विद्यार्थी हमारे लिए भीड़ है. उनका मनचाहा उपयोग किया जा सकता है. इसमें खर्चा भी बहुत कम है. जागरूकता रैली हो या स्वागत का कार्यक्रम, इन्हें घंटों सड़कों के किनारे भूखे प्यासे खड़ा किया जा सकता है, पताका-पट्टिका लेकर मीलों पैदल चलाया जा सकता है. न तो ये विरोध कर सकते हैं और न ही इनके शिक्षक प्रभारी. इस प्रताड़ना का ही परिणाम है कि स्कूली खेलों से निकलकर अच्छे खिलाड़ी कभी सामने नहीं आ पाते. जो थोड़े बहुत खिलाड़ी राज्यों का झंडा लेकर राष्ट्रीय खेलों में जाते हैं वो स्पोर्ट्स होस्टल से आते हैं. व्यक्तिगत खेलों में अकसर संपन्न परिवारों के बच्चे ही बाजी मारते हैं. जो निजी संसाधनों से बच्चों की डायट, उपकरण और कोचिंग की व्यवस्था करते हैं. स्कूल गेम्स के अधिकांश खिलाड़ियों का खेल करियर तो छोटी-मोटी चोटों के कारण असमय ही समाप्त हो जाता है. अभी कुछ दिन पहले ही राज्य स्तरीय जिम्नास्टिक प्रतियोगिता का आयोजन हुआ. बच्चे हाल में बिछी दरी पर डरते-डरते अपने हुनर का प्रदर्शन करते रहे. तो खेलों का तामझाम किसके लिये? आखिर किन पर खर्च हो रहा खेलों का पैसा और क्यों? आखिर कौन पकड़ेगा, इन जिम्मेदारों का कॉलर और कब?

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