Why don't they call a debate

मनोभावों को ताड़ने की कला और सिद्धपुरुष

सिद्ध पुरुष एक प्राचीन अवधारणा है. माना जाता है कि सिद्धपुरुषों को अपने आसपास की घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता था. किसी भी व्यक्ति के चेहरे को देखकर वे उसके बारे में काफी कुछ जान जाते थे, पूछने पर बता भी देते थे. इस तरह के कई ज्योतिषी आज भी मिल जाएंगे जो चेहरा पढ़कर भूतकाल के बारे में काफी कुछ बता देते हैं. दरअसल, चेहरा पढ़ना भी एक विज्ञान है. बच्चा झूठ बोलता है तो उसकी मां फौरन पकड़ लेती है. बच्चे ने आज कोई शरारत की है या किसी मुसीबत में फंसकर घर लौटा है, यह आभास भी उसे बच्चे का चेहरा देखकर ही हो जाता है. पति लाख चाहे पर अपनी पत्नी से सच नहीं छिपा पाता. इसकी वजह भी साफ है – महिलाएं घर गृहस्थी को ज्यादा गंभीरता से लेती हैं. उनके लिए रिश्ते-नाते और सामाजिक संबंध मायने रखते हैं. उसका परस्पर जुड़ाव अधिक होता है. कामकाजी महिलाओं में इस विद्या की धार भोथरी हो जाती है, ठीक उसी तरह जिस तरह अधिकांश पुरुषों में यह क्षमता बहुत कम हो जाती है. इस विद्या का उपयोग कर कुछ लोग अपनी-अपनी दुकानें चलाने लगते हैं. भोले-भाले लोग उन्हें सिद्ध पुरुष मान लेते हैं. बस इतनी सी बात है. किसी को इस आस्था से सुकून मिलता हो तो कोई बुराई भी नहीं है. सुहानी और धीरेन्द्र शास्त्री दोनों चेहरा पढ़ने में माहिर हैं. वैसे भी दिन भर में आप हजार-दो हजार लोगों को आशीर्वाद देंगे तो इनमें से 100-50 का फलित हो जाना महज संयोग ही होता है. भविष्य के बारे में सटीक जानकारी किसी के वश में नहीं. सतयुग के भी ऐसे सैकड़ों प्रसंग पढ़ने को मिल जाएंगे जब एकाएक आई मुसीबत का हल ढूंढने के लिए लोग ब्रह्मा-विष्णु-महेश की शरण में चले गये. समस्या को देखकर उसका हल ढूंढा गया. भविष्यवाणी भी केवल आस्था और विश्वास का मामला है, यह किसी भी धर्म का हिस्सा नहीं है. यदि हम मानते हैं कि सनातन भारत में विज्ञान ने बहुत तरक्की की तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि कुछ लोग थे जिन्होंने प्रत्येक मान्यता को चुनौती दी और नया हल ढूंढ कर लाए. विज्ञान इसी तरह आगे बढ़ता है. हमने अपने ही जीवन काल में टंगस्टन फिलामेंट वाले बल्वों को मरकरी लैंप, सीएफएल और अब एलईडी में बदलते देखा है. जो जाली वाले एरियल से रेडियो चलाते थे उनके लिए ‘बेतार’ एक आश्चर्य था. पर आज स्मार्ट फोन और मेटावर्स के दौर में कौन उन बातों को याद करता है? जिन भी लोगों को लगता है कि लोगों को सोचना बंद कर देना चाहिए, शोधों पर रोक लगा देनी चाहिए, घटनाओं को समझने की कोशिशें नहीं होनी चाहिए, उन्हें क्या ही कहा जा सकता है? एक गीत याद आता है – “मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो पल मेरी कहानी है…. कल और आएंगे नगमों की खिलती कलियां चुनने वाले, मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले.”

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