व्यक्तित्व को पूर्णता देता है थिएटर का ज्ञान

shankaracharya collegeभिलाई। जीवन एक रंगमंच है जिसमें हम सभी अलग-अलग समय में आते हैं, अपना-अपना किरदार निभाते हैं और फिर चले जाते हैं। प्रत्येक रिश्ते में हम अलग-अलग भूमिकाओं में होते हैं और इसमें नाटकीयता भी होती है। नाटकीयता जीवन के नीरस प्रसंगों को भी रोचक बना देती हैं। प्यार में, गुस्से में हमारी भाव भंगिमा बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। इसी तरह स्वर को कभी कोमल, कभी कर्कष बनाकर हम अपने शब्दों का वजन बढ़ा सकते हैं। यही सबकुछ थिएटर है। थिएटर आपको सिखाता है कि कैसे आप खुलकर हंस सकते हैं, रो सकते हैं। Read More
theatreशिवदास घोडके रंगमंच के उसी संसार से हैं जहां भाव-भंगिमाएं और स्वर की साधना की जाती है। वे अपना अनुभव पूरे देश में बांटते फिरते हैं। इन दिनों वे भिलाई में हैं और शंकराचार्य कालेज, जुनवानी में बच्चों को नाट्यकला का प्रशिक्षण दे रहे हैं। उनके निर्देशन में बच्चे अपने व्यक्तित्व को उभार रहे हैं, निखार रहे हैं। वे कहते हैं कि रंगमंच आपको न केवल अपने भावों को अभिव्यक्त करना सिखाता है बल्कि उन्हें नियंत्रण में रखना भी सिखाते हैं। जीवन में सफल होने, रिश्तों को बनाए या बचाए रखने के लिए भावों पर नियंत्रण बहुत जरुरी है।
इस प्रतिनिधि से चर्चा करते हुए श्री घोडके कहते हैं कि रंगमंच के प्रति उनका झुकाव बचपन से ही रहा है पर उन्हें पहला मौका मिला हाईस्कूल में। इसके बाद वे पहुंचे आज के तेलंगाना की सीमा पर स्थित डेगलूर कालेज। यहां श्रमदान के बदले में शिक्षा लाभ करने की सुविधा थी। वे फोटोग्राफी सीखते रहे, फिल्में डेवलप करते रहे, प्रिंट्स बनाते रहे और पढ़ाई भी करते रहे। काम के ऐवज में यहां भोजन फ्री था। उच्चारण की शुद्धता और साफ आवाज के कारण उन्हें नाटकों में प्राम्प्ट करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। प्राम्प्ट करने वाला व्यक्ति स्क्रिप्ट लेकर सेट पर मौजूद होता है और अभिनय करने वालों को डायलाग याद दिलाने में मदद करता है। संयोग से नाटक का एक महत्वपूर्ण किरदार अवकाश पर घर गया और उसे लौटने में काफी समय लग गया। इधर नाटक का मंचन होना था। नया कलाकार लेने के लिए पर्याप्त समय नहीं था। ऐसे में उन्हें ही वह पार्ट सौंपा गया। प्राम्पटर होने के कारण वे न केवल दृश्यों से परिचित थे बल्कि डायलाग्स भी याद थे। बस वे रंगमंच पर आ गए। इस नाटक में उनके अभिनय को सराहा गया।
इसके बाद शुरू हो गई उनकी रंगमंच की यात्रा। 1978 में उन्होंने नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा में दाखिला ले लिया। इसके बाद एक साल की फेलोशिप भी मिल गई। उन्होंने खुद को रंगमंच को समर्पित कर किया। आज वे अपने अनुभव और ज्ञान का पिटारा लिए उन लोगों की मदद करने का अभियान चला रहे हैं जिन्सें समाज विकलांग कहता है। वे ड्रामा का इस्तेमाल एक थेरेपी की तरह करते हैैं। वे श्रवण बाधित, दृष्टि बाधित, मानसिक कमजोरी के शिकार बच्चों के साथ काम करते हैं। वे कहते हैं कि ऐसे बच्चे भाव प्रधान होते हैं। वे अपने भावों की अभिव्यक्ति हाव-भाव से ही करते हैं। इस विधा को सशक्त बनाना, जितना उनके लिए जरूरी है, काम का है, उतना किसी और के लिए नहीं। इसलिए उन्होंने कार्य का यह क्षेत्र चुना। रंगमंच ने उन्हें बहुत कुछ दिया है, अब वे इसी तरह गुरुऋण से उऋण हो रहे हैं।
श्री घोड़गे को यहां लाने में प्रमुख भूमिका निभाई है निशु पाण्डेय ने जो इप्टा से जुड़े हैं और रंगमंच के प्रति पूर्णत: समर्पित हैं।

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