New Parliament and the oppostion

गुस्ताखी माफ : कल को संसद जाना पड़ा तो क्या मुंह लेकर जाओगे

शादी ब्याह में फूफाजी की नाराजगी भी उतनी ही जरूरी है जितनी कि बाकी रस्में. यदि फूफाजी खुश दिखाई दें तो यह मान लेना चाहिए कि उन्हें भी अपने मतलब की कोई चीज उस महफिल में मिल गई है. पर अमूमन ऐसा होता नहीं है. इसलिए फूफाजी मुंह फुलाते हैं. इसकी भी एक मियाद लगभग तय होती है. पहले फूफाजी को मुंह फुलाने दिया जाता है और फिर जब तय मियाद पूरी हो जाती है तो उन्हें मनाना शुरू कर दिया जाता है. फूफाजी ज्यादा देर तक मुंह फुलाए हुए रह भी नहीं सकते. उन्हें पता होता है कि यदि मात्रा पार कर गए तो फिर कोई पूछने वाला नहीं होगा. लोग अपने-अपने काम में मसरूफ हो जाएंगे. इसलिए फूफाजी थोड़ा मनाने पर ही मान जाते हैं. आज देश की भी यही स्थिति है. जो संसद भवन 33 करोड़ भारत वासियों के प्रतिनिधियों के लिए जरूरत से कहीं बड़ा था वह अब छोटा पड़ने लगा है. लोग पुश्तैनी मकान छोटा पड़ने पर नया बनाते ही हैं. गृह प्रवेश के समय सबको आशीर्वाद देने के लिए निमंत्रण भी देते हैं. न्यौता सभी खुले दिल से स्वीकार कर लें तो सभी को अच्छा लगता है. पर कुछ लोग इस पुनीत अवसर पर भी फूफागिरी से बाज नहीं आते. नया संसद भवन बना, इसका सभी भारतीयों को आनन्द होना चाहिए. सभी को खुशी के इस मौके पर शामिल होकर इसे एक यादगार घड़ी में बदल देना चाहिए. राजनीति में मतभेद हो सकते हैं पर यह तो मनभेद की पराकाष्ठा है. संसद किसी राजनीतिक दल की जागीर नहीं है. यह देश की जनता के प्रतिनिधियों का मिलन स्थल है. इस पुनीत अवसर से दूर रहकर विरोधी राजनीतिक दल क्या जताना चाहते हैं? लोकतंत्र में जहां सहमति में मेज थपथपाने का चलन है वहीं विरोध में अपनी बात को सीधे सरकार के सामने रखने का भी यही उपयुक्त मंच है. तो क्या विपक्षी दलों की संसदीय लोकतंत्र में अब आस्था नहीं रही? संसद में आज अगर विपक्ष की नहीं सुनी जा रही, विपक्ष के सांसदों की संख्या अगर बेहद कम या नगण्य है तो इसके लिए भी दोषी वे स्वयं हैं. इसका ठीकरा भी केन्द्र सरकार पर फोड़ने का यह तरीका न केवल गलत बल्कि गैरजिम्मेदाराना भी है. अच्छा तो यह होता कि ये भी सम्मान के साथ संसद के उद्घाटन समारोह में शामिल होते. वहां अपनी बात रखते कि “सेंगोल” या राजदंड जो भी है, उसका सही हकदार प्रधानमंत्री नहीं बल्कि राष्ट्रपति है. वे कहते कि संसद का उद्घाटन देश के संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति के हाथों होता तो अच्छा रहता. जब जवाहर लाल नेहरू को यह “सेंगोल” सौंपा गया था तब देश में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना नहीं हुई थी. न तो उन्हें देश ने चुना था और न ही वे किसी सदन का प्रतिनिधित्व करते थे. उन्होंने स्वयं को राजा मानने से इंकार किया, “सेंगोल” को गैरजरूरी समझा तो यह उनका व्यक्तिगत दृष्टिकोण था. खुदा न खास्ता किसी दिन इन्हें भी संसद की सदस्यता का मौका मिल ही जाए तो ये क्या मुंह लेकर वहां जाएंगे???

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