अनुकृति श्रीवास्तव, जबलपुर। सुबह क्लास लगती है इंजीनियरिंग की। लेकिन शाम होते ही यहां का नजारा बदल जाता है। क्लास रूम वही होता है, फर्क सिर्फ इतना होता है कि सुबह पढ़ने वाले छात्र शिक्षक बन जाते हैं और छात्र होते हैं आसपास के गांवों के मजदूर और गरीब परिवार के बच्चे। क्लास में आते ही बच्चे बोलते हैं हाऊ आर यू और गुड मॉर्निंग सर। बदलाव की यह मुहिम चल रही है शहर से 14 किमी दूर ट्रिपलआईटीडीएम में। ट्रिपलआईटीडीएम के छात्रों ने नौ साल पहले जागृति संस्था बनाकर यह प्रयोग शुरू किया था। अब इससे 400 छात्र जुड़े हैं और आसपास के गांवों के 120 गरीब बच्चों को पढ़ा रहे हैं। बच्चों को लेने के लिए इंजीनियरिंग कॉलेज की बस जाती है। खास बात ये कि इन बच्चों को कॉपी-किताबें जैसी सुविधाएं भी छात्रों का यह समूह ही मुहैया कराता है।ट्रिपलआईटीडीएम (पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंफार्मेशन टेक्नोलॉजी डिजाइन एंड मैन्युफैक्चरिंग) में गरीब बच्चों की क्लास में छह साल से आ रही स्नेहा गोटिया ने बताया कि हमारे गांव में मजदूर लोग हैं। जब हम यहां आए थे तो गिनती और अ अनार का आता था। बस, इसके अलावा गणित नहीं बनता था और अंग्रेजी तो बिल्कुल नहीं आती थी। लेकिन अब अंग्रेजी आसानी से पढ़ लेते हैं। स्नेहा ने बताया कि सिर्फ यही नहीं मैं जागृति के कारण ही 11वीं क्लास में कॉमर्स लेकर पढ़ रही हूं। सबसे अच्छी बात है कि जो मम्मी-पापा पहले स्कूल नहीं भेजते थे अब स्कूल नहीं जाने पर डांटते हैं।
रोज शाम टीचर बने छात्र 5:30 से 7:30 तक ट्रिपलआईटीडीएम के क्लास रूम में बच्चों को पढ़ाते हैं। इनमें पहली क्लास से लेकर 12वीं तक के बच्चे आते हैं। हर साल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके छात्रों का बैच यहां से निकल जाता है, उनकी जगह आने वाले नए छात्र इस अभियान से जुड़ जाते हैं और इस प्रकार यह सिलसिला चलता रहता है।
अभियान से जुड़े छात्रों के बीच बच्चों को पढ़ाने से लेकर उन्हें कल्चरल एक्टिीविटी कराने जैसी जिम्मेदारी बखूबी बंटी हुई है। हर रविवार को आसपास के गधेरी, चंडीटोला, सुअरकोल, आमानाला और महगंवा गांव में जाकर गांव वालों को बच्चों को शिक्षित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
इंजीनियरिंग के छात्रों ने कहा कि यहां हम सभी अपनी इच्छा से बच्चों को पढ़ाते हैं। पढ़ाने के अलावा मैनर्स, बैठने-उठने, बात करने का तरीका भी सिखाना पड़ता है, क्योंकि इन्हें घर पर शिक्षा का माहौल नहीं मिलता। इसलिए हमें ज्यादा मेहनत करना पड़ती है। इनके साथ सिर्फ टीचर ही नहीं बल्कि इनके पेरेन्ट और बड़े भाई-बहन बन कर इन्हें ट्रीट करना पड़ता है। बस आने के पहले ही हम बाहर खड़े हो जाते हैं।