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गुस्ताखी माफ : हड़ताल की मेहंदी रस्म बनाम चुनावी पैंतरा

Jul 7, 2023
Women write demands in mehandi

सरकार की यह सबसे बड़ी गलती है कि वह प्रत्येक व्यवस्था का निजीकरण नहीं कर रही है. जब एमटेक, पीजी, पीएचडी की डिग्री लेकर 25 हजार की नौकरी मिलेगी, तब जाकर लोगों की अक्ल ठिकाने आएगी. इसके बाद भी नौकरी दिहाड़ी मजदूरों जैसी होगी. बायोमेट्रिक्स से हाजिरी लगेगी और देर से आने वालों की आधे या पूरे दिन की तनख्वाह कट जाएगी. 20 साल की नौकरी के बाद भी यदि कंपनी को नाराज किया तो खड़े पैर नौकरी से निकाल दिये जाएंगे. सरकार ने लोगों को नौकरी क्या दे दी, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली.

अपने मुलाजिमों का वेतन भत्ता जुगाड़ते-कबाड़ते ही उसकी कमर टूट जाती है. ऊपर से इनसे काम लेना भी मुश्किल. जरा-जरा सी बात पर काम रोको, कलम छोड़ो जैसे आंदोलन. जनता और काम जाए भाड़ में, उन्हें तो केवल अपनी पड़ी है. अजीब नौकर हैं, एक बार रख लिया तो निकालना भी मुश्किल. इधर, काम करने की इच्छा लिए लाखों लोग कतार में खड़े हैं पर सरकार मुलाजिम नहीं बदल सकती. कैसी विडम्बना है कि जब भी तरक्की की बात होती है तो लोगों को कांग्रेस से शिकायत होती है. वो चीन, जापान, फ्रांस जैसे देशों का हवाला देने लगते हैं. कहते हैं कि देखो! उन देशों ने कितनी तरक्की कर ली और हमारा भारत पीछे रह गया. क्या ऐसे लोगों ने कभी वहां की जनता की कार्यसंस्कृति पर गौर किया है? लाख नाराजगी हो, वो अपना काम नहीं छोड़ते. पर अपने यहां तो आंदोलन का मतलब ही काम से छुट्टी और मुफ्त की रोटी है. वो जानते हैं कि कामकाज रुकेगा तो जनता भड़केगी. जनता भड़केगी तो सरकार परेशान होगी और नरम पड़ जाएगी. संविदा नियुक्ति इसी मुसीबत की ईजाद है. कर्मचारी राजनीति से परेशान होकर ही सरकारों को यह फैसला करना पड़ा. देखा गया है कि चुनाव करीब आते ही मांग करने वाले संगठनों की बाढ़ आ जाती है. “डिमांड-पालीटिक्स” करने वाले नेताओं की एक पूरी अलग जमात होती है. ऊपर से ऐसा लगता कि वह सरकार की बांह मरोड़ रही है, पर हकीकत में ऐसा कुछ है नहीं. उनकी अपनी दुकानदारी इसी तरह के आंदोलनों से चलती है. अब कोई कर्मचारी नेता गरीब नहीं होता. ये आंदोलन के नए-नए हथकंडे अपनाते हैं. बिलासपुर में संविदा कर्मचारी हड़ताल पर हैं. अब स्वास्थ्य अमले के संविदा कर्मचारी भी इससे जुड़ गए हैं. इसमें महिला कर्मचारी भी बड़ी संख्या में शामिल हैं. फिलहाल यहां मेहंदी रस्म चल रही है. मेहंदी में नियमितीकरण के चित्र उकेरे गए. जैसा कि अपेक्षित था, मीडिया में भी कवरेज मिल गया. सरकार केन्द्र की हो या राज्य की, इस तरह की हरकतों को यदि बर्दाश्त करती है जो अंतिम नुकसान जनता का ही होता है. इसी उपद्रव और अनुशासनहीनता के कारण सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों का प्रदर्शन चूक रहा है और वे हाशिए पर जा रहे हैं फिर चाहे वह इस्पात कारखाना हो या सरकारी अस्पताल.

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