जो लोग पहले फल तोड़ने के लिए कुल्लू मनाली के बागों जाते थे, अब वे उन फलों को अपने यहां ही उगाने लगे हैं. पारम्परिक खेती से 7-8 हजार रुपए कमाने वालों का आमदनी 10 गुना बढ़ गई है. धान, कोदो, कुटकी, रामतिल की बजाय अब वे सेब, आम, नाशपाती, लीची, अमरूद, काजू, स्ट्रॉबेरी जैसे फल पैदा कर रहे हैं. यहां से फल झारखंड, मध्यप्रदेश, बिहार, यूपी, ओडिशा, प. बंगाल तक जा रहा है. फलों की इस खेती में अधिकांश पहाड़ी कोरवा जनजाति के हैं. जशपुर में फलों की खेती इतना मजबूत हो चुकी है कि सालाना 14 लाख क्विंटल से भी ज्यादा फलों का उत्पादन किया जा रहा है. 21 हजार से ज्यादा किसान 40 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन पर खेती कर रहे हैं. इन आदिवासी किसानों को हार्टिकल्चर विभाग की मदद मिल रही है.
रूरल एजुकेशन एंड डेवलपमेंट सोसायटी के फाउंडर राजेश गुप्ता बताते हैं कि पहले किसान तैयार नहीं थे. पर तकनीकी जानकारी, खाद व पौधे देने के बाद उनकी रुचि जागी. उद्यानिकी विभाग के अधिकारी आरएस तोमर बताते हैं कि निचले घाट, ऊपरी घाट व पाट क्षेत्र में क्लाइमेट भी अलग-अलग हैं. ऊपरी क्षेत्र व पाट क्षेत्र में सबसे ज्यादा फलों की खेती होती है.
मनोरा ब्लॉक के सोनक्यारी गांव में 41 किसानों ने अपने एक-एक एकड़ में नाशपाती व आम की खेती कर रखी है. इन्हें नाबार्ड ने पौधे लाकर दिए और तकनीकी व फलीय पौधों की जानकारी देने में मदद की. एक साल में ही इनकी नाशपाती व आम के बगीचे विकसित हो गए और अब फल भी आने लगे हैं.
संभावनाओं की तलाश जारी
“जशपुर जिले की आबोहवा फलों के लिए बहुत अच्छी है. ज्यादा से ज्यादा किस्म के फलों के उत्पादन की संभावनाएं तलाश की जा रही हैं. इससे आदिवासी किसानों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो सकेगी. सेब अभी एक्सपेरिमेंटल स्टेज पर है. लीची, नाशपाती, काजू, स्ट्राबेरी पर भी हम काम कर रहे हैं. चाय को लेकर भी हमारा प्रयास जारी है.’
– डॉ. रवि मित्तल, कलेक्टर, जशपुर