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शवों पर सिंक रही नेतागिरी की रोटियां

Dec 7, 2015

vickky sharmaराजनीति गंदी होती है यह तो पता था किन्तु तथाकथित एजुकेशन हब की राजनीति छिछोरेपन की सारी हदों को पार कर जाएगी, यह सोचा नहीं था। यह सब जानते हैं कि चिकित्सक बनने की प्रक्रिया में शवों का अध्ययन किया जाता है। जिन्हें नहीं पता उन्होंने ‘मुन्नाभाई एमबीबीएसÓ में इसका नजारा किया है। भावी चिकित्सक शवों की चीर फाड़ कर न केवल एनाटमी (शरीर की बनावट और उसकी भीतरी बाहरी संरचना) से अवगत होते हैं बल्कि सर्जरी की बारीकियां भी सीखते हैं। मेडिकल कालेजों की संख्या बढऩे के बाद शवों की भी मांग बढ़ी। इसे पूरा करने के लिए स्वेच्छा सेवी संस्थाओं ने लोगों को देहदान के लिए प्रेरित करना शुरू किया। भिलाई में भी आस्था और प्रनाम नाम की दो संस्थाएं यह कार्य करती हैं। उनके इस कार्य की प्रशंसा कर मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह उन्हें सम्मानित कर चुके हैं। Read Moreअब तक सबकुछ ठीक था। किन्तु प्रनाम के अध्यक्ष पवन केसवानी ने जैसे ही चुनाव में खड़ा होने की घोषणा की उनके खिलाफ पर्चेबाजी शुरू हो गई। पर्चे में निराधार ऊलजलूल बातें लिखी गईं। लोगों को पता ही नहीं है कि देहदान की प्रक्रिया होती कैसे है। देहदान की वसीयत परिवार की उपस्थिति में की जाती है। इसपर निकट संबंधियों के हस्ताक्षर होते हैं। वसीयत करने वाले की मृत्यु होने पर परिजन ही उस अस्पताल को सूचित करते हैं जिनके नाम पर वसीयत की गई होती है। अपघात या हादसे में हुई मौत के शवों को स्वीकार नहीं किया जाता। इसी तरह कटी फटी लाशों को भी स्वीकार नहीं किया जाता। सूचना मिलने पर संबंधित अस्पताल से चिकित्सक मृतक के घर पर आते हैं। शव का उपयोगिता की दृष्टि से अध्ययन करते हैं और फिर उसे परिवार वालों से प्राप्त कर ले जाते हैं। अधिकांश शवों की वसीयत शासकीय मेडिकल कालेज अस्पताल या अखिर भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के नाम पर की जाती है। हालांकि निजी चिकित्सा महाविद्यालयों को भी शव सौंपे जाते हैं। पर यह सब वसीयत करने वाली की मर्जी पर निर्भर करता है। देहदान कराने वाले की भूमिका सिर्फ प्रेरक की होती है। पर्चेबाजी तक तो फिर भी ठीक था किन्तु जब अखबार ने इसे आधार बनाकर खबर छापी तो तकलीफ हुई। एक तो देहदान करने वाले वैसे ही कम हैं। जो थोड़ी बहुत जागृति लोगों में आ रही है, उसे छिछोरी राजनीति कर माहौल खराब करने की कोशिशों को हवा देना, भई हमें तो नहीं जंचता।

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