जिस मानव संसाधन के बूते हम दुनिया पर अपना परचम फहराने के मंसूबे पाले हुए हैं, उसमें जंग लग रहा है। नशे के काले कारोबारी उसकी नसों में नीला जहर उड़ेल रहे हैं और हम सब मूकदर्शक बने हुए हैं। इसका दुष्परिणाम भयावह है। बीमारियों, हिंसा, अपराध, खून-खराबे आदि की बढ़ोतरी में योगदान करने वाली इस समस्या की अगर आर्थिक और सामाजिक कीमत आंकी जाए तो अरबों, खरबों में है। नशाखोरी से लडऩे के लिए सरकार ने इंटीग्रेटेड रिहैबलिटेशन सेंटर फॉर एडिक्ट (आइआरसीए) के इंतजाम किए हैं। इन केंद्रों पर नशाखोरी पीडि़तों को काउंसिलिंग, उपचार और पुनर्वास जैसी सेवाएं मुहैया कराई जाती है।
हमारे युवाओं के लिए खेलने को प्रांगण नहीं हैं। विकास में भागीदारी के लिए उन्हें उचित और उपयुक्त मौके नहीं सुलभ हो पा रहे हैं। आयु के इस पड़ाव पर चलायमान युवा मन को भटकाने के लिए तमाम सौदागर आंखें गड़ाए हुए हैं। सीमा के बाहर और अंदर से तस्करी और तमाम स्रोतों से पहुंचने वाली नशीली दवाओं की खेप देश की धमनियों में दौडऩे वाले रक्त को दूषित कर रहा है। नशे की लत से जुड़ी समस्या के चलते पिछले दस साल के दौरान 25426 लोगों ने आत्महत्या कर ली है। 2004 से 2013 के बीच ड्रग्स का नशा करने वालों में 149 फीसद वृद्धि देखी गई। शराब पीने वाले सवा करोड़ लोगों को छोड़ भी दें तो अकेले ड्रग्स का सेवन करने वालों की संख्या 34 तक जा पहुंची है।
तेजी से बदल रही प्रवृत्ति
देश में गांजा, भांग जैसे प्राकृतिक मादक पदार्थों का सेवन सदियों से होता आ रहा है। किन्तु अब इसके शौकीनों की संख्या कम हो रही है। आंकड़े बताते हैं कि जितनी तेजी से ड्रग्स की तस्करी और बिक्री बढ़ी है, उसकी तुलना में इनकी खपत और तस्करी दोनों कम हुई है। 2009-12 के चार साल के बीच कोकीन और इफेड्रिन (मेथमफेटामाइन बनाने में इस्तेमाल) की तस्करी और खपत में 250 हुई वृद्धि। इसी समयावधि के दौरान मेथाक्वालोन (मैनड्रैक्स) की तस्करी और खपत में 4200 फीसदी की वृद्धि हुई। हालांकि चरस, भांग, गांजा में वृद्धि कम रही। चरस में यह वृद्धि 64 फीसद, भांग गांजा के इस्तेमाल में 23 फीसद ही वृद्धि हुई। वहीं अफीम के इस्तेमाल में 500 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। ये आंकड़े बताते हैं कि देश में नशा करने का पैटर्न तेजी से बदल रहा है और स्थिति भयावह होती जा रही है। यदि समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो बहुत देर हो जाएगी।