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अब शिक्षकों में वह समर्पण कहां

Mar 11, 2015

keshav chandrakar, arjundaभिलाई। बालोद जिले के अर्जुन्दा को आज लोककला की धुरी के रूप में ही जाना जाता है। इस नगर से चलकर निकले लोकरंग ने न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि पूरे देश में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। पर बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि अर्जुन्दा जब एक छोटा सा गांव होता था, तब उसने शिक्षा के क्षेत्र में अद्भुत मिसाल कायम की। दाऊ शिवचरण चंद्राकर एवं उनका परिवार इस परिवर्तन की धुरी बने। पर शिक्षा के प्रति अब वह समर्पण देखने को नहीं मिलता। read more
पिछले 60 वर्षों से भी अधिक समय से शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे वरिष्ठ शिक्षाविद केशव चंद्राकर बताते हैं कि इस गांव में तो अच्छे लोग रहते ही थे, ईश्वर की भी कुछ ऐसी कृपा थी कि जो यहां आता, यहां के रंग में रंग जाता।
keshav chandrakar, deepak chandrakarएक समधियाना ऐसा भी
1952 की एक घटना को याद करते हुए बताते हैं कि गांव में सरदारमल सेठ की पुत्री का विवाह हुआ। बारात महाराष्ट्र से आई थी। कौशल दाऊ के साथ वे व्यवस्था में जुटे हुए थे। आयोजन को देखकर सरदारमल सेठ के समधी बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने इच्छा जताई कि वे इस गांव के लिए कुछ करना चाहते हैं। उन्होंने 5001 रुपए की राशि तत्काल दान में दे दी। अब अर्जुन्दा वाले कहां पीछे रहते। गांव के मालगुजार कौशल प्रसाद जी ने भी बराबर की राशि दान में दी। देखते ही देखते 15003 रुपए एकत्र हो गए। इस राशि से गांव के मिडिल स्कूल को हाईस्कूल में परिवर्तित कर दिया गया। इस तरह 1952-53 में यहां भारती विद्यालय की स्थापना हो गई।
अतुलनीय, अद्भुत भारती विद्यालय
इस स्कूल ने शिक्षा, संस्कार और प्रतिस्पर्धा की ऐसी मिसालें कायम कीं जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलतीं। इस स्कूल के बच्चे प्रदेश स्तर पर आयोजित खेलकूद, सांस्कृतिक एवं अन्य प्रतियोगिताओं के अधिकांश पुरस्कार जीत कर ले आते। पूरे मध्यप्रदेश में इस स्कूल की धाक थी। शाला के संचालन के लिए दाऊजी ग्रीष्म की भरी दोपहरी में भी सिर पर पंछा बांधकर गांव-गांव में चंदा करते। इसी तरह दाऊजी के दान और जनसहयोग से इस शाला में 12 बड़े कमरे और एक विशाल हाल का निर्माण हुआ। किन्तु बाद में इसका संचालन मुश्किल होने लगा। ग्रांट कटते गए और अंत में इसे शासन ने गोद ले लिया। वे इसे अपना सौभाग्य मानते हैं कि उन्हें इस स्कूल का प्राचार्य बनने का अवसर मिला।
मामाजी का वह बड़ा फैसला
अपने बचपन को याद करते हुए वे कहते हैं कि स्वयं उनकी शिक्षा दाऊजी का ऋणी है। दाऊ शिव चंद्राकर उनके मामा थे। 5 वर्ष की उम्र में वे उसे अर्जुन्दा ले आए। यहां उनका दाखिला मिडिल स्कूल में करा दिया गया। 1948 में जब उन्होंने आठवीं उत्तीण कर ली तो हाईस्कूल की समस्या उठ खड़ी हुई। मामा अपने पुत्र भागवत और उन्हें (केशव) को लेकर दुर्ग आ गए। यहां उन्होंने महात्मा गांधी स्कूल से सम्पर्क किया। बाबूलाल खरे उन दिनों महात्मा गांधी स्कूल के प्राचार्य हुआ करते थे। स्थानाभाव का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि वे केवल एक ही बालक को प्रवेश दे पाएंगे। उनका सुझाव था कि भागवत का दाखिला करा दिया जाए। पर मामा को यह मंजूर नहीं हुआ कि उनका अपना पुत्र हाईस्कूल में दाखिल हो और उनका भांजा रह जाए। उन्होंने प्राचार्य से कहा कि उनका पुत्र यदि उच्च शिक्षा हासिल नहीं भी कर पाया तो उसे किसी तरह का अभाव नहीं होगा। इसलिए वे चाहेंगे कि स्कूल की इकलौती बची सीट पर उनके भांजे को दाखिला दिया जाए ताकि वह अपने भविष्य को गढ़ सके। उनकी बातों को सुनकर प्राचार्य भी अवाक रह गए।
केशव बताते हैं कि उन दिनों शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा मात्र होने से शिक्षा नहीं मिल जाया करती थी। इसके लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती थी। 11वीं की पढ़ाई उन्होंने शासकीय बहुउद्देश्यीय उच्चतर माध्यमिक शाला से की। हाई स्कूल पास करने के बाद महाविद्यालयीन शिक्षा की बारी आई। उस समय रायपुर में भी सिर्फ एक छत्तीसगढ़ महाविद्यालय हुआ करता था। काफी प्रयासों के बाद उनका दाखिला नागपुर के मॉरिस कालेज में हुआ। नागपुर में शिक्षा प्राप्त करने के दौरान वे रामकृष्ण मिशन के सम्पर्क में आए।
कहीं संन्यासी न बन जाए
रामकृष्ण मिशन आश्रम के छात्रावास की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि हालांकि उन्हें मॉरिस कालेज में दाखिला मिल गया था किन्तु उन्हें यहां के छात्रावास में जगह नहीं मिली। मामा उसे लेकर रामकृष्ण मिशन आश्रम पहुंचे। यहां उन्होंने चारों तरफ संन्यासियों को घूमते देखा। जब केशव छात्रावास अधीक्षक को साक्षात्कार दे रहे थे तब मामा इन संन्यासियों से बातचीत कर रहे थे। केशव को छात्रावास में जगह मिल गई। जब उन्होंने यह जानकारी मामाजी को दी तो उन्होंने उसे यहां रखने से ही इंकार कर दिया। उन्हें डर था कि कहीं केशव इन संन्यासियों से प्रभावित होकर संन्यासी न बन जाए।
भारती विद्यालय में वापसी
स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद वे अर्जुन्दा लौट आए। पहले तीन साल वे शिक्षक रहे और फिर उनके कंधों पर भारती विद्यालय के संचालन का गुरुभार डाल दिया गया। इस गांव का उनपर बहुत ऋण था। उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। स्कूल के पीछे छात्रावास के एक कमरे में उन्होंने डेरा डाल लिया। भोजन भी यहीं आ जाता। वे केवल स्नान करने और कपड़े बदलने के लिए ही घर जाते। स्कूल में लगभग 1000 बच्चे थे। विशाल प्रांगण था। स्वच्छता और अनुशासन इस स्कूल की पहचान बन गई। साथ ही शिक्षा, खेलकूद एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में भी स्कूल ने अपनी धाक जमाई। मध्यप्रदेश स्तर पर होने वाली अधिकांश प्रयोगिताओं के लगभग सभी पुरस्कार इस स्कूल की झोली में आ जाते।
भारती स्कूल का स्वच्छता अभियान
केशव बताते हैं कि स्कूल के बच्चों को शाला प्रांगण के एक छोर पर पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया जाता। वे वहां से चलकर प्रांगण के दूसरे छोर तक जाते और जो कुछ भी पड़ा होता उसे बीनकर डस्टबिन में डालते। फिर डस्टबिन को बाहर के बड़े डस्टबिन में खाली कर आते। 15 अगस्त और 26 जनवरी को स्कूल के बच्चे गांव के मोहल्लों की सफाई करने निकल जाते। उनके साथ शिक्षक भी होते। गांधी जयंती पर वे सतनामी पारा, कोष्टा पारा, महरा पारा के साथ ही कैहा तालाब, महरा तालाब, छितका तालाब, रामा तालाब, पिलसा तालाब आदि की सफाई करते। तालाब के किनारे गांव वाले शौच करते थे। बच्चे उसे भी साफ करते।
कॉमनवेल्थ से प्रशिक्षण
केशव बताते हैं कि वे नियमित रूप से अखबार पढ़ा करते थे। इसी में उन्होंने अमेरिकन स्कॉलरशिप के लिए विज्ञापन देखा। उन्होंने आवेदन कर दिया जो स्वीकृत भी हो गया। उनका चयन कॉमनवेल्थ टीचर्स ट्रेनिंग के लिए कर लिया गया था। उन्होंने दिल्ली में साक्षात्कार दिया। इसमें भी वे सफल रहे। अब एक विकट समस्या उठ खड़ी हुई। अमेरिका में रहना-खाना-पीना और प्रशिक्षण मुफ्त था किन्तु आने जाने का खर्च स्वयं वहन करना था। उन्होंने अपनी समस्या छोटे भाई विष्णु चंद्राकर को बताई। पूरा गांव उनके पीछे आ खड़ा हुआ। सबने मिलकर उनके आने जाने की व्यवस्था कर दी और वे बोस्टन पहुंच गए। एक साल के प्रशिक्षण के बाद हालांकि उन्हें वहीं प्रशासनिक पद का प्रस्ताव दिया गया किन्तु उनका दिल तो अर्जुन्दा में ही अटका हुआ था। वे लौट आए।
सबकुछ बदल गया था
केशव चंद्राकर बताते हैं कि जब वे बोस्टन से लौटे तो काफी कुछ बदल चुका था। शाला संचालन में आ रही दिक्कतों के चलते उसे सरकार को सौंप दिया गया था। संविलियन के बाद शासन की तरफ से नया प्राचार्य भी नियुक्त हो गया था। बहरहाल उन्हें शिक्षक का पद दिया गया। हालांकि शिक्षक रहने के दौरान भी उन्हें मान मर्यादा प्राचार्य का ही मिलता रहा। उनके अनुभव और प्रशिक्षण को देखते हुए उन्हें शासन ने सबसे पहले जगदलपुर का जिला शिक्षा अधिकारी नियुक्त कर दिया गया। उन्हें एक जीप और ड्राइवर दिया गया था। उन्होंने इसका भरपूर सदुपयोग किया और पूरे बस्तर में शिक्षा की क्रांति ला दी। शासन ने इसके बाद उन्हें रायगढ़ जिले की जिम्मेदारी सौंपी। इसी दौरान उन्हें एक वर्ष के लिए सारंगढ़ मल्टीपर्पस हाईस्कूल का प्राचार्य भी बनाया गया। वे उज्जैन भी गए। 1984-85 में उन्हें बीटीआई सारंगढ़ का प्राचार्य बना दिया गया। 1987 में उन्हें दुर्ग जिले का डिप्टी डिविजनल सुपरिंटेंडेंट आॅफ स्कूल्स बना दिया गया।
रामकृष्ण मिशन
केशव बताते हैं कि इस बीच उनके जीवन में कई परिवर्तन आए। सांरगढ़ में रहने के दौरान वे श्रीरामकृष्ण भावधारा आश्रम के सम्पर्क में आए। यहीं उन्हें स्वामी आत्मानंद को सुनने मिला। दूसरे दिन सुबह सुबह वे अपनी पत्नी के साथ उनका आशीर्वाद और दीक्षा लेने पहुंच गए। स्वामी आत्मानंद जी को दीक्षा देने का अधिकार नहीं था। लिहाजा उन्हें स्वामी भेताषानंद ने दीक्षा दी। उन दिनों रामकृष्ण मिशन अबूझमाड़ में शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए प्रयत्नशील था। आश्रम के अबूझमाड़ विकास प्रकल्प के लिए लोगों की तलाश हो रही थी। उन्होंने आवेदन किया और चुन लिये गए। नौकरी से लंबी छुट्टी लेकर वे एक साल तक आश्रम की सेवा में रहे। उनके कामकाज को खूब सराहा गया किन्तु शासकीय सेवक को लेकर उनके मन में दुविधा भी थी। अंतत: इसका भी हल निकल गया। स्वामी आत्मानंद का शासन के ऊंचे हलकों में भी बड़ा मान था। उन्होंने केशव चंद्राकर की सेवाएं प्रतिनियुक्ति पर मांग लीं। शासन ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। तब से लेकर आज तक वे रामकृष्ण मिशन के साथ अबूझमाड़ के सघन वनाच्छादित इलाकों में सम्पूर्ण शिक्षा का अलख जगा रहे हैं। आज उनकी उम्र 85 साल है पर उत्साह तनिक भी कम नहीं हुआ है। जीवनसंगिनी के स्वास्थ्य के चलते फिलहाल वे दुर्ग में रह रहे हैं। मन में काम पर लौटने की इच्छा आज भी है…
वह छोटी सी मुलाकात
केशव चंद्राकर जी से इस प्रतिनिधि की पहली मुलाकात भिलाई इस्पात संयंत्र के नेहरू हाउस आॅफ कल्चर, सेक्टर-1 में हुई। लोकरंग के मुखिया दीपक चंद्राकर द्वारा यहां पं. हृदयनाथ तिवारी निर्देशित शहंशाह संन्यासी स्वामी विवेकानंद का मंचन हो रहा था। केशवजी यहां बतौर अतिथि पधारे थे। कार्यक्रम शुरू होने से पहले उनसे मुख्तसर सी मुलाकात हुई और हम उनसे लंबी बातचीत की इच्छा को दबा नहीं पाए। उनके निवास पर दीपक चंद्राकर, ओमप्रकाश शर्मा एवं नाटककार अतृप्त आनंद के सान्निध्य में लंबी चर्चा आखिर हो ही गई।

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