• Thu. May 2nd, 2024

Sunday Campus

Health & Education Together Build a Nation

प्रगतिशील साहित्य मानवीय न्याय व्यवस्था का पक्षधर है – डॉ रमाकांत

Jan 18, 2023
Progressive literature upholds the law of humanity - Dr Shrivastava

दुर्ग. जहां मतलब निकल रहा हो वहां भावुकता और अनावश्यक होने पर कट्टर निरंकुश हो जाओ यही पूंजीवाद है. पूंजीवाद हमारी हर पवित्र वस्तु को नष्ट कर देता है, मनुष्य को अमानवीय बना देता है. मनुष्य और मनुष्य के बीच विभेद पूंजीवादी व्यवस्था की देन हैं स गरीबी ईश्वर की कोई योजना नहीं है यह शोषक व्यवस्था की उपज है. मार्क्स ने समाजवाद की बात की जहां अमीरी और गरीबी के भेद को मिटाया जा सकता है. प्रगतिशील साहित्य मानवीय न्यायपूर्ण व्यवस्था का पक्षधर है. उक्त विचार शासकीय विश्वनाथ यादव तमस्कर स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय दुर्ग के हिंदी विभाग द्वारा हिंदी का प्रगतिशील साहित्य विषय पर आयोजित कार्यक्रम में डॉ रमाकांत श्रीवास्तव ने व्यक्त किया. उन्होंने आगे कहा कि एक-दो व्यक्ति का साथ प्रगति नहीं है, बल्कि उस विचार की बहुत सी कड़ियां बनती हैं, जुड़ती चली जाती हैं, तब परंपरा बनती है. मूल्यवान विचार पहले से चले आ रहें हैं. धर्म का सारतत्व और धर्म के पाखंड को समझने के लिए उपनिषद की कहानियों को पढ़ना चाहिए. प्रश्नों का दौर पहले से चला आ रहा है. गार्गी का जिज्ञासु होना, राजा राममोहन राय का सती प्रथा व बाल विवाह का विरोध, विद्यासागर का विधवा विवाह का पक्ष लेना, ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले का महिला शिक्षा के लिए बालिका विद्यालय खोलना, भूखे को धर्म ग्रंथ परोसकर उसका अनादर किया जाता है विवेकानंद जी द्वारा धर्म के ऐसे पाखंड का विरोध विवेकवादी परंपरा का सूचक है. मुक्तिबोध का स्मरण करते हुए कहा कि लेखक के समक्ष विषय की कमी नहीं है, समस्या केवल उसके चुनाव का है. आज हमारे समक्ष सामंती, पूंजीवादी, साम्राज्यवादी व्यवस्था के साथ-साथ सांप्रदायिक फासीवाद एक बड़ी चुनौती है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट बड़ी समस्या है. लेखक को भावुक होना चाहिए. लेखक जनता से शक्ति लेकर उनके पक्ष में लिखकर क्रूर व्यवस्था का विरोध कर सकता है.
डॉ. बसंत त्रिपाठी ने कहा कि प्रगतिवाद के संबंध में बहुत से लेखकों विचारकों ने भ्रांति पैदा की है, वे कहते हैं कि प्रगतिवादी विचारों की जड़ें पाश्चात्य जमीन की देन है, यह सहीं नहीं है. वैश्विक मंदी के बाद मुसोलिनी और हिटलर जैसे फासिस्ट तानाशाही उभार सामने आया इसके विरोध स्वरुप फ्रांस में 1935 में बुद्धिजीवियों की सभा हुई. जिसमे मुल्कराज आनंद और सज्जाद जहीर सम्मिलित हुए तथा उससे प्रेरणा लेकर भारत में 1936 में प्रेमचंद की अध्यक्षता में भारत में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की, जिसको विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर का भी आशीर्वाद मिला. भारत की जनता उस समय अंग्रेजी साम्राज्यवाद तथा सामंतवादी व्यवस्था से स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थी. प्रेमचंद, निराला जैसे लेखक इस संघर्ष से जुड़कर रचनाकारों की अगुवाई कर रहे थे. यही परंपरा छायावाद के बाद प्रगतिवाद के रूप में विकसित हुई. केदार, त्रिलोचन, नागार्जुन, शमशेर, मुक्तिबोध इसी परंपरा में आते हैं. इसे साहित्य ही नहीं ,बल्कि कला की अन्य विधाओं में भी देखा जा सकता है. यही प्रगतिवादी चेतना ही आज रचनात्मकता की मुख्य धारा है.
कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रभारी प्राचार्य डॉक्टर राजेंद्र चौबे ने अपने उद्बोधन में कहा कि आज जब शोषित पीड़ित वर्ग की समस्या को सामने लाने वालों को डराने धमकाने का प्रयास किया जा रहा है ऐसे में युवाओं की महती जवाबदारी है. सकारात्मक बदलाव के साथ आगे बढ़ाना वर्तमान चुनौतियों से भरा है. हमारे लेखक समाज की इन चुनौतियों को स्वीकार करते हुए जन चेतना पैदा कर रहे हैं, हम उनका अभिनंदन करते हैं.
कार्यक्रम आरंभ में अभिनेष सुराना ने स्वागत उद्बोधन के साथ विषय प्रवर्तन किया. डॉ जय प्रकाश ने अतिथि वक्ताओं का परिचय देते हुए कहा- डॉ रमाकांत श्रीवास्तव और डॉक्टर बसंत त्रिपाठी का छत्तीसगढ़ से निकट संबंध है. रमाकांत श्रीवास्तव और बसंत त्रिपाठी अपने ढंग के विशिष्ट कथाकार हैं उनकी अपनी विशिष्ट शैली व पहचान है.
कार्यक्रम में दुर्ग भिलाई के साहित्यकार शरद कोकास, लोकबाबू, डॉ.शंकर निषाद, डॉ. अरविंद शुक्ला, विभाग के प्राध्यापक बलजीत कौर, डॉ. कृष्णा चटर्जी, अन्नपूर्णा महतो, , डॉ. ओम कुमारी देवांगन, डॉ. किरण शर्मा, डॉ. सरिता मिश्र, प्रियंका यादव के साथ बड़ी संख्या में शोध छात्र एवं विद्यार्थीगण उपस्थित थे. कार्यक्रम का संचालन डॉक्टर रजनीश उमरे तथा आभार प्रदर्शन प्रो. थानसिंह वर्मा ने किया.

Leave a Reply