अति किसी भी बात की बुरी ही होती है फिर चाहे वह प्यार हो, सहानुभूति हो या नफरत. इसी तरह दवा का ओवरडोज भी खतरनाक होता है. अब यही बात धर्म-कर्म पर लागू होने लगी है. वैज्ञानिक दुनिया में बेसिर-पैर के पाखण्ड में यकीन करने वालों की संख्या लगातार और तेजी से कम हो रही है. अधिकांश केवल परम्परा के नाम पर इन्हें ढो रहे हैं. पर अब लोग इन पाखण्डों से भी भागने लगे हैं. वे इसका विरोध तो नहीं करते पर सम्मिलित भी नहीं होते. जहां तक हिन्दू समाज का प्रश्न है तो इसमें विभिन्न संस्कारों का पालन किया जाता है. शुभ मुहूर्त से लेकर कुण्डली मिलान तक की रस्में अब भी निभाई जाती हैं. शेष संस्कारों का एक सामाजिक महत्व है. इसे समाज एक उत्सव की तरह मनाता है. पर वैज्ञानिक समाज इन आडम्बरों को अनिवार्य नहीं मानता. वह विकल्पों को सहजता से अपनाता है. बड़ी संख्या में लोग अदालतों में शादी करते हैं और दोस्तों के बीच पार्टी करते हैं. जो विवाह की फिजूलखर्ची से बचना चाहते हैं वे सामूहिक विवाह में शामिल हो जाते हैं. इसमें प्रायः सभी धर्म, सम्प्रदाय और पंथों के मानने वाले होते हैं. हाल ही में छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक सामूहिक विवाह समारोह का आयोजन किया गया. यहां 75 जोड़ों का विवाह सम्पन्न कराया गया जिनमें से 9 जोड़े मसीही समाज से थे. वैसे दुनियाभर में – “नो रिलीजियन” आंदोलन शुरू हो गया है. ऐसे लोग स्वयं को किसी भी धार्मिक समुदाय से नहीं जोड़ते. इनमें से कुछ नास्तिक हैं तो कुछ अनीश्वरवादी. इनमें से अधिकांश लोगों की सर्वोच्च शक्ति में आस्था तो है पर उस तक पहुंचने के लिए किसी धार्मिक पाखण्ड या कट्टरता का सहारा लेना उन्हें जरूरी नहीं लगता. जिसने भी ज्यादा कट्टरता दिखाई, उससे लोग कटने लगे. यूरोप और अमेरिका सहित दुनिया भर के 26-27 देशों में “नो रिलीजियन” आंदोलन चल रहा है. ऐसे लोगों के 35 से अधिक ज्ञात संगठन हैं. इसमें फॉर्मर मुस्लिम, एक्स-मुस्लिम जैसे संगठन शामिल हैं. 2007 के आसपास शुरू हुआ यह मुहिम 2019 में भारत पहुंच गया. यहां केरल में एक्स मुस्लिम ऑफ केरल का गठन हुआ जो हर साल 9 जनवरी को एक्स मुस्लिम दिवस मनाता है. कुछ ऐसा ही हाल मसीही समुदाय का भी है. यूरोप में एक Mennonite चर्च इसलिए बंद हो गया कि लोगों ने वहां आना छोड़ दिया. रायटर्स Reuters के मुताबिक क्रिश्चियन और मुसलमानों के बाद “नो रिलीजियन” समूह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा समूह है. हिन्दू चौथे नम्बर पर आते हैं. क्रिश्चियन लगभग पूरी दुनिया में समान अनुपात में फैले हुए हैं जबकि हिन्दुओं की सबसे बड़ी आबादी, लगभग 94 प्रतिशत, भारत में रहती है. ईसा और इस्लाम को मानने वाले प्रत्येक सप्ताह एक खास दिन चर्च या मस्जिद जाते हैं जबकि हिन्दुओं में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. ऐसे हिन्दुओं की भी कमी नहीं है जो केवल तीज-त्यौहारों पर ही मंदिर जाते हैं. इसलिए हिन्दुओं पर “नो रिलीजियन” के प्रभाव का पता लगाना मुश्किल है.