माना जाता है कि शिल्पकारी शौक के साथ ही आजीविका का भी साधन हो सकती है. इसलिए देश के तमाम महाविद्यालयों में शिल्पकला का प्रशिक्षण दिया जाता है. हिन्दी फिल्मों में भी हम देखते रहे हैं कि गरीब विधवाएं अपने बच्चों को सिलाई कढ़ाई करके पढ़ा लिखा रही हैं. बच्चे बड़े होकर पुलिस अफसर, वकील बैरिस्टर बन रहे हैं. पर टेक्नोलॉजी के दौर में शिल्पकारी केवल एक मिथक बनकर रह गई है. अब शिल्पकारी एक उम्दा शौक तो हो सकती है पर यह अच्छी आजीविका नहीं दे सकती. प्रसिद्ध घुरा शिल्पकार रुख्मणी चतुर्वेदी की हालत ने इस विषय को दोबारा सामने ला दिया है. 55 हजार महिलाओं को घुरा, सिलाई कढ़ाई, गोदना, जूट शिल्प, शीशल शिल्प का प्रशिक्षण दे चुकी रुख्मणी मुफलिसी में जीवन बिता रही हैं. तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद उनके पास अपने इलाज के लिए पैसे नहीं है. यह स्थिति तब है जबकि 2019 में उन्हें मिनीमाता सम्मान से विभूषित किया गया. मुख्यमंत्री भी नारी शक्ति सम्मान प्रदान कर चुके हैं. हाल ही में 5 मार्च, 2023 को उन्हें राज्यपाल ने महिला शक्ति सम्मान से नवाजा. इसी साल उन्हें अंतरराष्ट्रीय कोहिनूर अवार्ड से सम्मानित किया गया. घूरा शिल्प या “बेस्ट आउट ऑफ वेस्ट” को पाठ्यपुस्तकों में भी शामिल किया गया है. आप किसी भी शिल्प को उठा कर देख लें तो पाएंगे कि उसके निर्माता मुफलिसी में ही जीवन व्यतीत करते हैं. मिट्टी का काम करने वाले कुम्भकार, काष्ठ की वस्तुएं बनाने वाले बढ़ई, पारम्परिक बाल-नाखून काटने वाले, खेती किसानी और रसोई के औजार बनाने वाले लुहार सभी मुफलिसी में जीवन बिता रहे हैं. जबकि इसे बाजार तक पहुंचाने वाले अच्छी खासी कमाई करते हैं. निर्माता और मूल्य संवर्धन करने वाला मजदूर अकसर गरीब ही रह जाता है. महीने भर में दीपावली आने वाली है. शहर के आसपास के गांवों में कुम्भकारों के परिवार दीया, कलश, सकोरा बनाने में जुटे हुए हैं. पूरा परिवार इसमें लगा हुआ है. नदी से मिट्टी लाना, उसे सुखाना, कूटना पीसना, सानकर लोंदा बनाना और फिर चाक पर उसे विभिन्न स्वरूप देने में परिवार के सभी सदस्य जुटे रहते हैं. इससे 10-12 आदमी का परिवार किसी तरह सीजन में प्रतिमाह 15 हजार रुपए के आसपास कमा लेता है. अर्थात प्रति व्यक्ति आय 1000 से 1200 रुपए होती है. ये जिन्दा हैं तो केवल इसलिए कि ये संयुक्त परिवार में रहते हैं. सांझा चूल्हा और संयुक्त खर्च इन्हें जीवित रखता है. दीया और कलश को रंग कर बेचने वालों को कुछ ज्यादा पैसे मिल जाते हैं. पर इस मूल्य संवर्धन की भी एक कीमत होती है. रंगाई और सजावट का यह काम परिवार के सदस्य ही करते हैं. यदि उनकी रोजी निकाल दी जाए तो फिर यह भी घाटे का ही सौदा प्रतीत होता है. एक और पीढ़ी के गुजर जाने के बाद शायद मटका या घड़ा भी सजावटी वस्तु बन कर रह जाएगा. तो क्या पारम्परिक कौशल अप्रासंगिक हो चले हैं?