क्या आदिवासी भी हिन्दू हैं? इसका जवाब हां भी है और नहीं भी. हिन्दुत्व की सार्वभौम परिभाषा में आदिवासी ही क्यों, सभी धर्म के लोग हिन्दू हैं. इस हिन्दुत्व की परिभाषा “वसुधैव कुटुम्बकम” पर आधारित है. इसमें मनुष्य स्वयं प्रकृति का हिस्सा है और उसके साथ तालमेल बैठाकर जीवनयापन करता है. पर हिन्दुत्व की जो नई परिभाषाएं समय-समय पर गढ़ी जाती रही हैं, उसके साथ हो सकता है आदिवासी समुदाय तालमेल न बैठा पा रहा हो. हिन्दुत्व की राक्षसी परिभाषाएं गढ़ने वाले धरती पर से उन लोगों का सफाया करना चाहता है जो उनकी सोच को साझा नहीं करते. हिन्दुत्व की नई परिभाषाएं गढ़ने वाले आदिवासी संस्कृति पर हमला करते हैं. उनके पूजा-पाठ में, उनकी जीवन पद्धति में विघ्न डालते हैं. सनातन में धर्म की परिभाषा अलग रही है. सनातन में राजा के धर्म को राजधर्म कहा गया है. उसके कर्तव्यों तथा उससे अपेक्षाओं की व्याख्या की गई है. जिस भी राजा ने प्रजा की चिंता की, न्याय के सर्वोच्च सिद्धांतों का पालन किया, वो अमर हो गए. पर जब से हिन्दुत्व का इस्तेमाल राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए प्रारंभ हुआ, हिन्दुत्व का यह गुण जाता रहा. राज धर्म, प्रजा धर्म, मनुष्यता, सबकुछ हाशिए पर चली गई. इसलिए जब छत्तीसगढ़ के आदिवासी नेता कवासी लखमा कहते हैं कि आदिवासी अपने अलग धर्म कोड की मांग करेंगे तो उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए. आदिवासी समुदाय के एक हिस्से का मानना है कि उन्हें भी जैन या बौद्धों की तरह अलग धर्म कोड की पहचान मिलनी चाहिए. यह कोड उन्हें उनकी उपासना पद्धति की आजादी देगा. उनके खान-पान या जीवन यापन की शैलियों पर उंगली नहीं उठाई जा सकेगी, उसमें व्यवधान डालने वालों के खिलाफ न्यायिक कार्यवाही की जा सकेगी. दरअसल, भारत देश अपनी विविधताओं के लिए ही जाना जाता है. यही एकमात्र ऐसा देश है जिसके बारे में हाल के वर्षों तक कहा जाता रहा है कि यह अनेकता में एकता और एकता में अनेकता का जीवंत उदाहरण है. इस एकता को किसी नेता या किसी संत-महात्मा के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है. यह सहचर्य पर आधारित है. मनुष्य अपने आसपास रहने वाले पेड़-पौधे और पशु-पक्षियों के साथ भी जीवन को साझा करता है. ये सभी उसके जीवन का हिस्सा हैं फिर किसी पंथ विशेष को मानने वाला अलग कैसे हो सकता है? जो सबको साथ लेकर चल सकता है, वही हिन्दू है. जो इस दायरे की परिधि निश्चित करना चाहता है, वह लाख प्रमाण लेकर आए, हिन्दू नहीं हो सकता. पंथ के झगड़े बहुत बाद में शुरू हुए हैं. पंथों का जन्म अलग-अलग स्थान-काल-परिस्थितियों में हुआ. सम्राट अशोक का जन्म भारत में ही हुआ, उन्होंने भारत में ही लड़ाइयां लड़ीं और भारत भूमि पर ही उनका मन बदला और वे बौद्ध धर्म के सबसे बड़े प्रचारक बन गए. नया पंथ ग्रहण करने के बाद उन्होंने अपनी जीवन पद्धति बदल डाली. यह सब समय सापेक्ष है. इसका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए.