5 मई को प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक और समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स का जन्मदिन था. मार्क्स को हम मार्क्सवादियों के कारण जानते हैं. ऐसा माना जाता है कि मार्क्स पूंजीवाद के खिलाफ थे. भिलाई के शक्ति सदन में मार्क्स के जन्मदिवस पर एक नाटक खेला गया. इसमें मार्क्स के भारत आने की कल्पना को साकार किया प्रसिद्ध रंगकर्मी जयप्रकाश नायर ने. नाटक में कई बार मार्क्स को कहना पड़ता है कि वो मार्क्सवादी नहीं हैं. यह तीखा व्यंग्य शायद व्याख्याकारों के लिए है. लोग एक पूरी बात में से आधा-पौना काट लेते हैं और अपने मतलब के लिए उसका उपयोग करने लगते हैं. भारतीय समाज ने संभवतः मार्क्स के साथ भी यही किया. इसलिए नाटक के मार्क्स को कहना पड़ता है कि वे अपने नाम पर लगा कलंक मिटाने के लिए स्वर्ग से छुट्टी लेकर आए हैं. मार्क्स के विचारों को विदेशी ठहराकर उसे भारत के लिए अप्रासंगिक करार दिया जाता रहा है. मार्क्स कहते हैं – विचारों या सिद्धांतों को सरहदों में नहीं बांधा जा सकता. वक्तव्य में से अपने मतलब की बात निकाल लेना उपद्रवियों का खास शगल रहा है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी लंबे समय से इस पीड़ा को भोग रहे हैं. तसल्ली यह है कि अब कांग्रेसी भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के वक्तव्यों के साथ ऐसा ही करने लगे हैं. वैसे भी लोगों को बातों को समझने से ज्यादा मजा बातों का बतंगड़ बनाने और लोगों की खिल्ली उड़ाने में आता है. पूंजीवाद पर मार्क्स की टिप्पणी एक गूढ़ विषय है. श्रम पूंजी के लिए है या पूंजी श्रम के लिए – इसपर लंबी बहस की जा सकती है. यह ठीक वैसा ही है कि धर्म से मनुष्य है या मनुष्य से धर्म. मार्क्स की चिंता थी कि जब पूंजी का बोलबाला हो जाएगा तो श्रमिक उत्पादन का एक संसाधन मात्र बन कर रह जाएगा. ऐसा हो चुका है. आज मनुष्य को हम ह्यूमन रिसोर्स या मानव संसाधन ही कहते हैं. जहां उपलब्ध हुआ, जहां जरूरत पड़ी हमने उसकी जगह मशीनों को, रोबोट को काम पर लगा दिया. मार्क्स एक और बात के लिए प्रसिद्ध हैं. उनका मानना था कि धर्म/आस्था एक अफीम की तरह है. जब मनुष्य अपने पुरुषार्थ से किसी समस्या का समाधान नहीं कर पाता, जब कष्ट बहुत बढ़ जाता है तो वह आस्था की शरण में चला जाता है. अफीम का उपयोग एक वेदनाहारी के रूप में ही किया जाता है. आधुनिक चिकित्साशास्त्र भी इसका उपयोग इसी रूप में करता है. जब रोगी के बचने की कोई संभावना नहीं रहती तब खूब पढ़ा लिखा डाक्टर भी कहता है कि प्रार्थना करो. अफीम/आस्था अगर मनुष्य का कष्ट कम कर दे, तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है. पर जब इस अफीम का उपयोग लोगों को भटकाने के लिए किया जाए तो नई मुसीबतें खड़ी हो जाती हैं. इस तरह से भड़काई गई भावनाओं पर काबू पाने का कोई फार्मूला फिलहाल तो नहीं है.