सनातन “वसुधैव कुटुम्बकम” का सिद्धांत देता है. पर इसके लिए एक शर्त भी है – “उदार चरितानां”. अर्थात चित्त अगर उदार है तो पूरा विश्व एक परिवार है. यही उदारता पशु पक्षियों को भी परिवार का हिस्सा मानती है. कृषि प्रधान भारत में परिवार सामूहिक श्रम करता था, धन संपदा को भी साझा करता था. पर मुखिया बनने की लड़ाई तब भी थी. रामायण काल में राजगद्दी का स्वार्थ श्रीराम के वनवास का कारण बना. लव-कुश जुड़वां थे. उनके लिए अलग-अलग राज्य बने. पर इसी रामायणकाल में भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण जैसे भाई भी हुए. महाभारत का किस्सा भी जुदा नहीं है. जब दुर्योधन ने ‘नोक बराबर’ जमीन भी पांडवों को देने से मना कर दिया तो महाभारत हो गया. पंच पांडवों को छोड़कर दोनों ही पक्षों का लगभग पूरा सफाया हो गया. दरअसल, महाभारत और रामायण सबक देते हैं, जो हमें बताते हैं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है. पर हम कहां उपदेशों पर कान धरते हैं. आज भी जितनी लड़ाइयां लोगों की पड़ोसियों से होती है, उससे कहीं ज्यादा झगड़े घर के भीतर होते हैं. कोर्ट कचहरी से लेकर बात हत्या तक पहुंच जाती है. पर यह भारतीय समाज व्यवस्था और परम्पराएं ही हैं जो उन्हें पूरी तरह टूटकर बिखर जाने नहीं देती. वैवाहिक कार्यक्रमों से लेकर विभिन्न संस्कारों में विस्तृत परिवार की भूमिका सुनिश्चित की गई है. किसी संस्कार में फूफा-बुआ जरूरी हैं तो किसी में मामा के बिना काम नहीं चलता. कुछ संस्कार ऐसे भी हैं जिसमें पांच या सात पीढ़ियों का स्मरण करना होता है. दरअसल, परिवार एक अघोषित सपोर्ट सिस्टम है. ऐसे असंख्य उदाहरण मिल जाएंगे जहां माता-पिता की असमय मृत्यु के बाद बच्चे मामा, चाचा या ताऊ के यहां पल गए. बेशक इनमें से सभी का अनुभव अच्छा नहीं होता पर रोटी, कपड़ा और मकान की उसकी बुनियादी जरूरतें तो पूरी हो ही जाती हैं. विपरीत परिस्थितियां उसमें तीव्र जिजीविषा को जन्म देती है जिसके कारण ऐसे बच्चे असाधारण मेहनत करते पाए जाते हैं और सफल भी होते हैं. पर यही परिवार बोध अब दरकने लगा है. शहरी जीवन में एकल परिवार की अवधारणा पहले आई. न्यूक्लियर फैमिली मतलव केवल पति-पत्नी और एक या दो बच्चे. परिवार के सिमटने के साथ ही बर्दाश्त भी कम हो गई. पहले रिश्तेदारों में काट-छांट हुई और फिर परिवार के चार लोग भी एक दूसरे से कट गए. आज बहुत कम परिवार ऐसे रह गए हैं जो कम से कम एक वक्त का भोजन साथ-साथ करते हैं. स्मार्ट फोन टीवी का विकल्प बन गया तो साथ-साथ टीवी देखना भी बंद हो गया. बेशक कुछ लोग अब भी साथ-साथ बैठते हैं पर सभी अपने-अपने फोन में डूबे रहते हैं. ऐसे में, 1967 में आई फिल्म “उपकार” का यह गीत बरबस ही याद आ जाता है – “कसमें वादे प्यार वफा सब, बातें हैं बातों का क्या, कोई किसी का नहीं रे जग में, नाते हैं – नातों का क्या?”
Display pic credit Pinterest