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गुस्ताखी माफ : छलका महिला महापौरों का दर्द

May 13, 2023
politics of incompetence and insecurity

छत्तीसगढ़ फिलहाल इलेक्शन-मोड में है. कांग्रेस प्रभारी कुमारी शैलजा सभी जिम्मेदारों से उनका दुःख दर्द पूछ रही हैं. जहां कहीं भी संभव हो पा रहा है, बातचीत के जरिए मन-मुटावों को सुलझाने की कोशिश कर रही हैं. पार्टी की कम से कम तीन महिला महापौरों ने उनसे कहा है कि स्थानीय नेता उन्हें काम नहीं करने देते. इन नेताओं के कारण उनका परफारमेंस खराब हो रहा है. इनमें से कुछ नेता इतने प्रभावशाली हैं कि पार्टी के अधिकांश पार्षद भी उनकी ही बात मानते हैं. दरअसल, कुछ महिलाएं केवल इसलिए चुनाव जीत जाती हैं कि पद महिलाओं के लिए आरक्षित होता है. पार्टी प्रत्याशी होने के नाते उन्हें वोट भी मिल जाते हैं. ऐसी जनप्रतिनिधियों का कोई राजनीतिक वजूद नहीं होता. न ही उनमें नेतृत्व की क्षमता होती है. यह दर्द अकेले महिला महापौरों का नहीं है. ऐसा उन सभी के साथ होता है जिनकी तैनाती स्थानीय रसूखदारों की मर्जी से मेल नहीं खाती. फिर वह आदमी पुलिस में हो, प्रशासन में हो या किसी भी सरकारी या गैर सरकारी संस्थान में. लोग न तो उनकी सुनते हैं और न ही उन्हें काम करने देते हैं. किसी को काम नहीं करने देने की भी 100 वजहें हो सकती हैं. पहला तो यह कि कोई नहीं चाहता कि आरक्षण के बूते पद पर काबिज हुआ आदमी सचमुच का नेता बन जाए. असुरक्षा की भावना से ग्रस्त लोग भी किसी को आगे नहीं बढ़ने देते. ऐसे लोगों की भारतीय समाज में बहुत बड़ी संख्या है. उनकी टीम केवल इसलिए हार जाती है कि उनका कप्तान उन्हें सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने से रोकता है. ऐसे कुटिल नेता जानबूझकर लोगों को बेमेल जिम्मेदारियां देते हैं. नतीजा वही निकलता है जो अपेक्षित होता है. कभी-कभी यही स्थिति देश की न्यायपालिका की भी होती है. वह मामले की सुनवाई करना चाहता है पर कानूनी पेंचों के जानकार उन्हें ऐसा नहीं करने देते. जज पक्षकारों के इंतजार में बैठा-बैठा रिटायर हो जाता है. फिर किताबें लिखकर अपनी खीझ मिटाता है. वह पूछना चाहता है कि पांच माह की गर्भवती से बलात्कार करने वाले किसी भी धर्म के कैसे हो सकते हैं? उनकी सजा माफ करने वाली सरकार से मानवता की उम्मीद कैसे की जा सकती है? जिन आरोपियों को माफ करने में उनके घर वालों तक को संकोच होगा, उन्हें माफी देकर कोई सरकार कैसे खुश रह सकती है?

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