डोंगरगढ़। ईश्वर हमेशा प्रेमियों का साथ देते हैं। प्राचीन कामाख्या नगरी के दरबारी संगीतकार माधवानल और राजनर्तकी कामकंदला का मिलन कराने के लिए माता विमला यहां अवतरित हुईं थीं। उन्हें यहीं पर्वत शिखर पर मंदिर बनाकर प्रतिष्ठित कर दिया गया। वही विमला माता आज मां बम्लेश्वरी के रूप में विख्यात हैं। पहाड़ी पर स्थित किले के कारण इस स्थान का नाम डोंगर (पहाड़) गढ़ (किला) पड़ गया। कहते हैं डोंगरगढ़ आने वाले प्रेमी युगलों की सहायता माता स्वयं करती हैं।
डोंगरगढ़ का ज्ञात इतिहास लगभग 2200-2500 वर्ष पुराना है। डोंगरगढ़ उन दिनों कामावती नगरी के रूप में विख्यात था। यहां महाराजा वीरसेन का शासन था। भगवान शिव-पार्वती के आशीर्वाद से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। बालक का नाम मदनसेन रखा गया। शिव-पार्वती के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए उन्होंने पर्वत शिखर पर माता विमला (बम्लेश्वरी) का मंदिर बनवाया। कालांतर में मदनसेन का बेटा हुआ जिसका नाम रखा गया कामसेन। कामसेन सम्राट विक्रमादित्य के समकालीन थे। सम्राट विक्रमादित्य (जन्म 102 ईसा पूर्व) का उज्जैन में शासन था। विक्रम संवत का आरंभ भी इसी काल में हुआ। इसी कामसेन के कारण इस नगरी को बाद के वर्षों में कामाख्या नगरी भी कहा गया।
राजा कामसेन बड़े प्रतापी और संगीत-कला के प्रेमी थे। राजा कामसेन के ऊपर बमलेश्वरी माता की विशेष कृपा थी। उनके दरबार में कामकंदला नाम की अति सुंदर नर्तकी और माधवानल माम का संगीतकार था। एक बार प्रसन्न होकर राजा ने माधवानल को अपने गले का हार भेंट किया। माधवानल ने वह हार कामकंदला को पहना दिया। राजा ने इसे अपना अपमान माना और माधवानल को राज्य निकाला का आदेश दे दिया। पर माधवानल गया नहीं। वह डोंगरगढ़ की पहाड़ी गुफा में ही छिप गया। कामकंदला और माधवानल छुप-छुप कर मिलते रहे।
कामसेन के पुत्र मदनादित्य को इसकी भनक लग गई। वह भी कामकंदला पर आस्त था और उसे पाना चाहता था। उसने घात लगाकर कामकंदला और माधवानल को रंगे हाथ पकड़ने के लिए जाल बिछाया। पर कामकंदला चमका देकर महल लौट गई और माधवानल भागकर उज्जैन चला गया।
उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य भी कला प्रेमी थे। माधवानल ने जल्द ही अपनी कला से उन्हें प्रभावित कर दिया। जब सम्राट ने उसे पुरस्कार मांगने को कहा तो उसने कामकंदला को मुक्त कराने का आग्रह किया। न्याय प्रेमी सम्राट विक्रमादित्य ने राजा कामसेन को पत्र लिखकर कामकंदला को मुक्त करने को कहा। कामसेन ने इस पत्र की अवज्ञा कर दी। तब विक्रमादित्य ने कामाख्या नगरी पर चढ़ाई कर दी। दोनों तरफ से घनघोर युद्ध हुआ। भयंकर नरसंहार को देखकर विक्रमादित्य ने अपने आराध्य महाकाल का स्मरण किया। इधर कामसेन ने भी विमला माता का आव्हान कर दिया। युद्ध के दुष्परिणाम को देखते हुए महाकाल ने विमला माता से राजा विक्रमादित्य को क्षमा करने की प्रार्थना की और कामकंदला और माधवानल को मिलाकर वे दोनों अंतर्ध्यान हो गए। माता विमला बम्लेश्वरी के रूप में इस राज्य की अधिष्ठात्री देवी के रूप में स्थापित हो गईं।
प्रेमी युगलों की आस्था
प्रेमी युगल आज भी इस मंदिर में अपने जोड़ी को सुरक्षित रखने के लिए आते हैं और माता बम्लेश्वरी से प्रार्थना करते हैं। आसपास की पहाड़ियों पर, गुफाओं की दीवारों पर इन जोड़ों की मन्नतें दिख जाती हैं।
प्रकृति की अनुपम छटा
डोंगरगढ़ की पहाड़ी लगभग 490 मीटर (1610 फीट) ऊंची है। मंदिर तक जाने के लिए 1100 सीढ़ियां हैं। यहां रोपवे भी है। डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 100 किमी पश्चिम तथा महाराष्ट्र के नागपुर से 170 किमी पूर्व में दक्षिण पूर्व मध्य रेल खंड पर स्थित है। यहां सड़क मार्ग से भी जाया जा सकता है। मंदिर पहाड़ी की चोटी पर है जहां से पूरे शहर का विहंगम दृश्य दिखाई पड़ता है।
बड़ी बम्लेश्वरी-छोटी बम्लेश्वरी
मां बम्लेश्वरी मंदिर जहां पहाड़ी की चोटी पर है वहीं नीचे छोटी बम्लेश्वरी हैं, जिन्हें बड़ी बम्लेश्वरी की छोटी बहन कहा जाता है। नवरात्रि के दिनों में इन दोनों मन्दिरों में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। यहाँ शिव जी और हनुमान जी को समर्पित मन्दिर भी हैं। यहां नाग वासुकी मंदिर, शीतला मंदिर, दादी मां मंदिर भी हैं। नीचे छीरपानी जलाशय है, जहां बोटिंग होती है। यहां छत्तीसगढ़ का एकमात्र यात्री रोपवे है। यहां की मूर्तिकला पर गोंड़ संस्कृति का पर्याप्त प्रभाव दिखता है। गोंड़ राजाओं के किले के प्रमाण भी यहां मिलते हैं। यह शहर धार्मिक सद्भाव के लिए जाना जाता है और हिंदुओं के अलावा बौद्धों, सिखों, ईसाइयों और जैनों की भी यहाँ काफी आबादी है।
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श्रीराम ने की थी तपस्या
मां बमलेश्वरी को माता का बगलामुखी रूप माना जाता है। 10 महाविद्याओं में से एक मां बगलामुखी के इस दरबार में भगवान राम ने तपस्या कर रावण पर विजय प्राप्त करने का आशीर्वाद पाया था। ये पहाड़ी अनादिकाल से जगत जननी मां बमलेश्वरी देवी की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति का साक्षी है। मां बमलेश्वरी के आशीर्वाद से भक्तों को शत्रुओं को परास्त करने की शक्ति मिलती है साथ ही विजय का वरदान मिलता है।
दोपहर आरती और लाल मिर्च का हवन
मां बमलेश्वरी के दरबार में दो पहर होने वाली आरती विख्यात है। मां बगलामुखी के दरबार में हवन भी अनूठा है। यहां हवन सामग्री में लाल मिर्च का इस्ते माल किया जाता है। लाल मिर्च को शत्रु नाशक माना जाता है, जिसका पूजा में इस्तेमाल करने से शत्रुओं का नाश हो जाता है.
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यह भी है मान्यता
घनघोर युध्द से वैभवशाली कामाख्या नगरी पूर्णतः ध्वस्त हो गई। युध्द के पश्चात विक्रमादित्य द्वारा कामकन्दला एवं माधवनल की प्रेम परिक्षा लेने हेतु जब यह मिथ्या सूचना फैलाई गई कि युध्द मे माधवनल वीरगति को प्राप्त हुआ तो कामकन्दला ने ताल मे कूदकर प्राणोत्सर्ग कर दिया। वह तालाब आज भी कामकन्दला के नाम से विख्यात है। उधर कामकन्दला के आत्मोत्सर्ग से माधवनल ने भी अपने प्राण त्याग दिये। प्रयोजन व्यर्थ हो जाने पर राजा विक्रमादित्य ने माँ बम्लेश्वरी देवी (बगुलामुखी) की आराधना की और प्राणोत्सर्ग करने को तत्पर हो गये। तब देवी ने प्रकट होकर अपने भक्त को आत्मघात से रोका। तत्पश्चात विक्रमादित्य ने माधवनल कामकन्दला के जीवन के साथ यह वरदान भी मांगा कि माँ बगुलामुखी अपने जागृत रूप मे पहाडी मे प्रतिष्टित हो। तबसे माँ बगुलामुखी अपभ्रंश बम्लेश्वरी देवी साक्षात महाकाली रूप मे डोंगरगढ मे प्रतिष्ठित है।
ऐतिहासिक साक्ष्य
सन 1964 में खैरागढ़ रियासत के भूतपूर्व नरेश श्री राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक ट्रस्ट की स्थापना कर मंदिर का संचालन ट्रस्ट को सौंप दिया। मंदिर के इतिहास को लेकर जो पुस्तकें और दस्तावेज सामने आए हैं, उसके मुताबिक डोंगरगढ़ का इतिहास मध्यप्रदेश के उज्जैन से जुड़ा हुआ है। मां बम्लेश्वरी को उज्जैन के प्रतापी राजा विक्रमादित्य की कुल देवी भी कहा जाता है। इतिहासकार और विद्वान मंदिर को कल्चुरी कालीन मानते हैं। उत्खनन में यहां जैन मूर्तियां मिल चुकी हैं। कुछ मूर्तियों के गहने, उनके वस्त्र, आभूषण, मोटे होठों तथा लम्बे केश यहां की मूर्तिकला को गोंड संस्कृति से जोड़ते हैं।
अनुमान है कि 16 वीं शताब्दी तक डूंगराख्या नगर गोंड राजाओं के अधिपत्यभ में रहा। गोंड राज्य में शांति व्यवस्था स्थापित थी। पहाड़ी पर किले के भग्नावशेष दिख जाते हैं। बाकी हैं। इसी वजह से इस स्थान का नाम डोंगरगढ़ पड़ा।
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