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स्वयंसिद्ध है शास्त्रीय संगीत

Feb 7, 2015

parthasaarthi mukherjee, tablaभिलाई। पार्थसारथी अपने नाम के अनुरूप ही संगीत की साधना करते हैं। वे मूक वाद्य यंत्र तबला के साधक हैं और संगत में ही खुश हैं। वे कहते हैं कि संगत का आनंद इसी में है कि आप गायक पर हावी होने की कोशिश न करें। वह आपके साथ कम्फर्टेबल फील कर सके। पार्थसारथी (श्रीकृष्ण) ने कुरुक्षेत्र में भी यही तो किया था। स्वयं शस्त्र न उठाते हुए पार्थ (अर्जुन) को अपनी पूरी क्षमता के साथ युद्ध करने के लिए प्रेरित किया था। read more
parthasarathi mukherjeeपार्थसारथी मुखर्जी का बचपन सड़क-22, सेक्टर-6, भिलाई में बीता। पिता अशोक कुमार मुखर्जी तबलावादक थे। इधर पिता रियाज करते थे, उधर पार्थ घुटनों पर चलकर किचन में पहुंच जाते थे। वहां डब्बा, कटोरा, गंजी जो भी सामने मिल जाता, उसपर थाप देते। मां ने ही सबसे पहले महसूस किया कि बालक पार्थ की थापों में एक लय है। उन्होंने अशोक का ध्यान इस ओर आकर्षित किया। साढ़े चार वर्ष की उम्र में पार्थ की तबला में दीक्षा हुई और साढ़े छह साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली मंचीय प्रस्तुति दी। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। भौतिक के प्रसिद्ध शिक्षक श्री पेंढारकर की नजरों ने बालक पार्थसारथी की प्रतिभा को पहचाना और 1981 मेें उन्हें नागपुर के प्रसिद्ध आयोजन महफिल संगीत सम्मेलन में प्रस्तुति देने के लिए प्रेरित किया। 1985-86 में वे आकाशवाणी से जुड़ गए। कालांतर में उन्हें राष्ट्रपति के करकमलों से सोने की वीणा सम्मान स्वरूप मिली।
अपने पिता की उंगली पकड़कर ही वे भिलाई निवासी प्रसिद्ध सितारवादक बुधादित्य मुखर्जी के सम्पर्क में आए। उनके साथ संगत भी किया। उनके मन में लगातार यह बात चलती थी कि बुधादित्य उन्होंने अपने साथ मंच पर संगत क्यों नहीं करने देते। उद्विग्न होकर एक दिन उन्होंने अपने पिता के सामने अपने दिल की बात रखी। उसी दिन वे अपने मन की बात रखने के लिए पं. बुधादित्य के घर के लिए रवाना हुए। पर वहां जाकर पता चला कि पंडितजी उनके घर गए हुए हैं। तब जाकर यह राज खुला कि पं. बुधादित्य मुखर्जी ने अपने मध्यप्रदेश टूर के लिए उन्हें ही संगत के लिए चुना था। 1988 में उन्होंने सम्पूर्ण यूरोप का दौरा किया। 1990 से 93 तक खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय से संबद्ध रहे। 1993 में वे यूके चले गए और वहीं से खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय को अपना त्याग पत्र भेज दिया। 2002 में पिता की मृत्यु के बाद वे भारत लौट आए। 2012 में भाई गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। घर का ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते वे घर की जिम्मेदारी उठाने भिलाई लौट आए।
पं. पार्थसारथी मुखर्जी ने बनारस घराने के पद्मभूषण पंडित सामता प्रसाद की शागिर्दी की। उन्होंने वहां रहकर न केवल अपने तबला वादन को निखारा बल्कि अपनी उच्चशिक्षा भी जारी रखी। संगत को ही अपना मूल धर्म मानने वाले पार्थ ने कई चोटी के सितारों के साथ संगत की है और इनकी सीडी भी आई है। इनमें पं. बुधादित्य मुखर्जी, उस्ताद परवीन परवेज, श्रीमती श्रुति सादोलिकर, पं. अशोक रॉय, श्रीमती लक्ष्मी शंकर, पंडित रोनू मजुमदार आदि शामिल हैं। विदेशों में उनकी प्रस्तुति को बेहद सराहा गया है जहां उनके तबले से निकलने वाले कोमल स्वरों को खूब दाद मिली।
पं. पार्थसारथी इटली के वेनीस अंतरराष्ट्रीय संगीत समारोह, रोम और तोरिनो के थिएट्रो कोलोसियो, आस्ट्रेलिया के एडिलेड इंटरनेशनल म्यूजिक फेस्टिवल, सिडनी के ऑपेरा हाउस, बाथ इंटरनेशनल फेस्टिवल ऑफ म्यूजिक, लंदन के हाउस ऑफ कॉमन्स, लंदन के ही स्पीटल फील्ड्स इंटरनेशनल म्यूजिक फेस्टिवल, एस्टोरिल के अंतरराष्ट्रीय संगीत समारोह, बरमिंघम कन्सरवेटॉयर, साउथ बैंक आट्र्स सेन्टर, लंदन के ही कुफा गैलरी, लिसेस्टर फीनिक्स आट्र्स सेन्टर में हेरिटेज ऑफ इंडियन परकुशन, लीड्स अंतरराष्ट्रीय संगीत समारोह, गिल्ड हॉल स्कूल ऑफ म्यूजिक एंड ड्रामा आदि में अपनी प्रस्तुति दे चुके हैं।

पितृऋण से उऋण होने की कोशिश
आज के इस प्रतिस्पर्धी और आत्मकेन्द्रित दौर में इतना ऊंचा मुकाम पा लाने के बावजूद पार्थ ने एक झटके में सेलिब्रिटी लाइफ का त्याग कर दिया। भारत लौटकर उन्होंने अपने पिता के नाम पर पंडित अशोक कुमार मुखर्जी म्यूजिक फाउंडेशन की स्थापना की और अपने पिता के सपनों का आगे बढ़ाने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं। वे कहते हैं कि यह हौसला केवल शास्त्रीय संगीत का साधक ही कर सकता है। शास्त्रीय संगीत व्यक्ति को भीतर से इतना हौसलामंद कर देता है कि वह कभी परिस्थितियों का गुलाम नहीं हो सकता। उसका संगीत ही उसे ऊंचाइयों पर बनाए रखता है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि आज पूरी दुनिया इसकी कायल है। विदेश की धरती पर जब लोग उनके तबला वादन की बारीकियों की चर्चा करते तो मन गदगद हो जाता। पर यही शास्त्रीय संगीत अपने भारत में नेपथ्य में चला जा रहा है। घरानों से जुड़े हम सब शास्त्रीय कलाकारों का यह धर्म है कि तमाम बाधाओं और निराशाओं के बीच हम इसे इसके शुद्ध रूप में आगे बढ़ाते रहें। शास्त्रीय कलाएं हमारी वह धरोहर हैं जो हमें पूरी दुनिया में सिर उठाकर खड़ा होने की शक्ति देते हैं।
अब तो एक ही सपना
पार्थ बताते हैं कि वे एक सपना लेकर भिलाई लौटे हैं। संगीत शिक्षण में वे पारम्परिक घराना संस्कृति को आगे बढ़ाना चाहते हैं। यही उनके पिता का भी सपना था जिसके चलते उन्होंने बालक पार्थ को गुदई महाराज (पं. सामता प्रसाद) को सौंप दिया था। नतीजा आज सबके सामने है। उनका दूसरा बड़ा सपना बाल अपराधी (जुवेनाइल ऑफेन्डर्स) के बीच काम करना है। उनका दृढ़ विश्वास है कि संगीत इनके जीवन में आमूलचूल परिवर्तन ला सकता है। वे उन्हें एक सकारात्मक दिशा देकर बतौर मनुष्य इस समाज में लौटा लाना चाहते हैं। उन्हें इस बात का दुख है कि देश में इन बालकों के लिए कानून तो हैं किन्तु उन्हें समाज की मूल धारा में लौटा लाने का कोई सिस्टम नहीं है। वे नहीं चाहते कि देश के ये भावी युवा हमेशा हमेशा के लिए अंधकार में खो जाएं।

One thought on “स्वयंसिद्ध है शास्त्रीय संगीत”
  1. Mai aspka fan hu. Aapke poojya pitashree ka program attend kiyah.Apke chote bhai ache sitar eadak the unkajana badi dukhad ghatana hai.aap bhilai ki shan h.Salamat rahe.

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