ऐसा हर चुनाव से पहले होता है। पूर्व निर्धारित चुनाव के काफी पहले से लोग अपना घर-बार भुलाकर नेतागिरी को धार देते रहते हैं। सोशल मीडिया पर प्रोफाइल पिक ठीक करते हैं। स्टूडियो जाकर नई फोटू खिंचवाते हैं। फोटू की कम से कम 10-12 कापी पर्स में रखकर घर से निकलते हैं। जब-जहां मौका मिलता है धरना, प्रदर्शन, आंदोलन करते हैं। अखबार वालों के बीच में उठना बैठना शुरू करते हैं। और जैसे ही चुनाव की घोषणा होती है इनके नाम चलने लगते हैं। पहले सिर्फ अखबारों में फिर लोगों की जुबान पर। फिर एक नेता के ड्राइंग रूम से निकलकर दूसरे नेता के ड्राइंग रूम तक। बिना रुके, बिना थके ये चलते चले जाते हैं। फिर एक दिन आता है जब इन्हें पता चलता है कि जिला इकाई से राज्य इकाई को गए नामों की सूची में उनका नाम ही नहीं हैै। अब नाम चिड़चिड़ाने लगता है। सार्वजनिक रूप से कहने लगता है – मेरा भी घर परिवार है भाई। उन्हें भी देखना है। 25 साल हो गए पार्टी की सेवा करते। करियर छोड़ा, पैसे गंवाए हाथ में हाया बाबा जी का ठुल्लू। Read More
अभी-अभी एक शादी से लौटा हूं। महापौर चुनाव में जिनके नाम चल रहे थे ऐसे अनेक चेहरे वहां दिख गए। एक तो सीधा-सीधा खिसियाया हुआ मिला। कहा – भाड़ में गई नेतागिरी। घर बार देखेंगे। क्रिसमस की छुट्टियों में कहीं घूम आएंगे। बच्चे कितना जिद कर रहे थे। दूसरे ने कहा – हम तो रेस में थे ही नहीं वह तो भाई लोगों ने नाम चला दिया था। तीसरा बिहार चुनाव के नतीजों का हवाला देकर बताने लगा – चुनाव जीतने के लिए कार्यकर्ता चाहिए – नेता नहीं। यदि पार्टी को अब भी अक्ल नहीं आई तो नेता भुगतेंगे। बावले को पता ही नहीं कि नेता कभी भुगतते नहीं है। वह तो बहुत ऊंचा खेल खेलते हैं। इतना ऊंचा कि चवन्नी छाप मीडिया और साधारण कार्यकर्ता को उसकी भनक तक नहीं लगती। वहां गणित चलता है। मैथ्स हर स्टूडेंट के बस का रोग नहीं होता। यह केवल सुपर इंटेलेक्चुअल के लिए होता है। चुनाव की तैयारी आप छह माह पहले से कर रहे थे, वहां साल भर पहले ही बिसात बिछ चुकी है, प्यादों की बलि चढ़ चुकी है – फायनल पंजा कुश्ती होनी है और फिर नाम तय हो जाना है। पार्टी को पता है कि उसके बिना आप कुछ भी नहीं। कई बड़े-बड़े दिग्गज पार्टी छोड़कर धूल फांक चुके हैं। कार्यकर्ता पार्टी की सेवा जरूर करता है पर उसे चलाता नहीं है। पार्टी उसे चलाती है। जब जहां जरूरत पड़े वहां फिट कर देती है। जरूरत न पड़े तो शादी का कार्ड तक नहीं भेजती। समझे लल्लू …