बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ की सरगर्मियों के बीच बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) की एक छात्रा के साथ छेडख़ानी होती है। छात्रा वार्डन से शिकायत करती है। वार्डन उलटे उसी को धमकाने लगता है। मामला विश्वविद्यालय के कुलपति के पास ले जाने की कोशिश होती है तो वे समय ही नहीं देते। अब छात्र समुदाय मामले को सड़क पर लेकर आता है तो उनपर पुलिस छोड़ दी जाती है। वही पुलिस जिनपर छात्राओं की एक रिपोर्ट पर छेडख़ानों की क्लास लगाने की जिम्मेदारी है। प्रशासनिक हेकड़ी का इससे बेहतर उदारण और क्या हो सकता है।बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय देश की वह संस्था है जिससे निकले छात्र पूरे देश में शीर्ष पदों को सुशोभित कर रहे हैं। रोजगार और स्वरोजगार के क्षेत्र में इन्होंने झंडे गाड़े हैं। इस विश्वविद्यालय से निकले छात्र आजीवन स्वयं को बीएचयू का एलुमनी बताते नहीं थकते। देश विदेश के प्रत्येक शहर में ये एक दूसरे के सम्पर्क में रहने की कोशिश करते हैं। उन्हें अपने विश्वविद्यालय पर गर्व है। इस विश्वविद्यालय का नेतृत्व संभालना एक बड़ी और गंभीर जिम्मेदारी है जिसका, कदाचित, मौजूदा विश्वविद्यालय प्रशासन को आभास तक नहीं है। वे इस विश्वविद्यालय को किसी सरकारी कार्यालय की तरह संचालित कर रहे हैं जहां सुनवाई होते-होते वर्षों गुजर जाते हैं। विश्वविद्यालय से लगकर लंका बाजार है। यहां छेडख़ानी की वारदातें होती रहती हैं। छात्र समुदाय के बीच छेडख़ानी के ये हादसे ‘लंकेटिंगÓ के नाम से मशहूर हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बेटियों को सुरक्षित माहौल में शिक्षा के बेहतर अवसर देना चाहते हैं। राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी छात्राओं की सुरक्षा के लिए एंटी रोमियो स्क्वाड बनाए हैं। फिर क्या कारण है कि ‘लंकेटिंगÓ पर किसी तरह का अंकुश नहीं लग पाया। क्या विश्वविद्यालय प्रशासन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की मंशा से अनभिज्ञ हैं? इस मामले में छात्रा ने वही किया जो किसी भी विद्यार्थी से अपेक्षित है। उसने विश्वविद्यालय परिसर के अपने अभिभावकों से शिकायत की। पहले ने तो अपमान किया ही, दूसरे ने सुनने तक की जरूरत नहीं समझी। इसके बाद भी छात्र समुदाय ने लोकतांत्रिक तरीका अपनाया। छात्र समुदाय यह भी कर सकता था कि मामले को सीधे पुलिस के पास ले जाता। पुलिस में सुनवाई न होने की स्थिति में छात्र समुदाय यह भी कर सकता था कि संगठित होकर छेडख़ानों की पिटाई कर देता। पर छात्रों ने विश्वविद्यालय की गरिमा का ध्यान रखा। उसने कानून को अपने हाथों में नहीं लिया। किन्तु इसका क्या सिला मिला। विश्वविद्यालय प्रशासन ने अपनी गरिमा को बचाने की कोई कोशिश नहीं की। उलटे छेडख़ानी पर लड़कियों को ही डांट-डपटकर घर के अंदर भेजने की दकियानूसी सोच का प्रदर्शन किया। परिसर में पुलिस आई। पुलिस ने छात्राओं पर डंडे चलाए। आंसू गैस के गोले दागे। उच्च शिक्षा हासिल करने आई छात्राओं पर पुलिस में मामला दर्ज हो गया। उन्हें जागरूकता दिखाने का, अपनी इज्जत की सुरक्षा करने के प्रयास का, यही पुरस्कार मिला। हालात इतने बिगड़े कि यह राष्ट्रीय स्तर की खबर बन गई। बेकाबू हालात को सुधारने का प्रयास करने के बजाय अपने पद के अहंकार में डूबे कुलपति ने उलटे पुलिस की कार्यवाही को ही जायज ठहराना प्रारंभ कर दिया। कुलपति को यह समझना होगा कि यह पद भले ही अनुभव एवं डिग्री के आधार पर सौंपा जाता हो किन्तु इसकी जिम्मेदारी उससे भी बड़ी है। उनपर न केवल उच्च शिक्षा के आकांक्षी विद्यार्थियों के बेहतर शिक्षण प्रशिक्षण की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी है बल्कि छात्र-छात्राओं को सुरक्षित माहौल उपलब्ध कराना भी उनके दायित्वों में शामिल है। फिलहाल वे अयोग्य साबित हुए हैं।